आदिवासी समाज की कभी ऐसी प्रवृत्ति नहीं रही की वह संग्रह करे और न ही उसने कभी अपनी निजी संपप्ति बनाने की ही परवाह की। अगर यह प्रवृत्ति उनकी होती तो आज सबसे अधिक संपत्ति और संसाधनों के मालिक वे होते। महाराष्ट्र के अमरावती जिला स्थित मेलघाट के आदिवासियों के करीब 36 गाँव को सरकार विस्थापित कर रही है। विस्थापन का कारण बताया जा रहा है जंगल का विकास। अगर वाकई में जंगलों का नुकसान ये आदिवासी कर रहे होते तो क्या आज जंगल बचे होते? यह सवाल किसी को भी सोचने पर मजबूर कर सकता है। जंगलों पर बहुत पहले से ही सरकार का कब्जा रहा है। सैकड़ों की संख्या में जंगलों की नीतियाँ बनाई गई जो लगातार उन आदिवासियों के लिए काल ही साबित हुई हैं। अगर वास्तव में सरकार जंगलों का विकास चाहती तो जंगल अब तक काफी समृद्ध होते। आज रंग-बिरंगी सरकारें हजारों एकड़ जमीन कार्पोरेट घरानों के हवाले कर रही है। कॉरपोरेट घरानों की रहबरी करने वाला वर्ल्ड बैंक जंगलों को बचाना चाहती है। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि वहाँ से आदिवासियों को निकाल कर जंगलों का विकास नहीं होगा। बल्कि यह विकास वहीं के लोगों के साथ मिलकर होगा तभी सबसे ज्यादा कारगर हो सकता है।
सरकार हजारों आदिवासी परिवारों को तबाह करके कैसा विकास चाहती है! जिन इलाकों में जंगलों से आदिवासियों को उजड़ा गया है वहां के आँकड़े देखे जा सकते हैं कि वाकई वहाँ विकास हुआ है या विनाश! शायद जिस तरह के विकास को देखने की हमारी आदत बनती जा रही है मुमकिन है वह विकास आया भी होगा। जैसे पर्यटन के नाम पर जंगलों के बीच आरामगाह का निर्माण करना। होटल, शॉपिंग सेंटर का निर्माण करना ताकि शहरी लोग वहाँ आकार अपना मनोरंजन कर सकें और उसके एवज में राजस्व की कुछ रकम सरकार के खाते में जा सके। क्योंकि आदिवासियों से कोई राजस्व सरकार को नहीं जाता। बल्कि उन्हें सुविधाएँ अलग देनी पड़ती हैं।
अगर आदिवासी जंगलों में रहेंगे तो वहाँ वन विभाग अपनी मनमाने ढंग से जमीन बेचने और जंगलों के संसाधन पर अपना पूर्ण अधिकार हासिल नहीं कर सकती। यही वजह है कि आदिवासियों को जंगलों से किसी भी किमत पर बाहर निकाला जाए ताकि कोई भी उनके इस कथित विकास में आड़े न आ सके। जाहिर है सरकार की प्राथमिकता में जंगल न होकर कुछ और ही है। मेलघाट के तमाम ऐसे गाँव हैं जहाँ के हजारों लोगों ने आज भी जमीन के अपने मालिकाना हक हासिल नहीं किए। क्योंकि उन्हें इसकी कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। जल, जंगल, जमीन को व्यवसाय के रूप में देखने की उनकी संस्कृति ही नहीं रही है। उन्हें तो वह अपने देवता के रूप में पूजते आए हैं। तभी तो वह आज तक सुरक्षित है। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि आदिवासी जंगलों को नुकसान पहुंचाते हैं तो वह नुकसान क्या है?
उन्हें घर बनाने के लिए साल भर में शायद एक पेड़ ही काफी होगा। कुछ महुए के फल और पत्तियां बस! बाकी उन्हें कुछ भी बेचने की आजादी नहीं है। जंगल के अंदर कोई भी खरीद और बिक्री बिना वनविभाग के नहीं हो सकती। चलो मान भी लेते हैं कि वह अपने घर, खेती के लिए वहाँ से कुछ-कुछ संसाधन इस्तेमाल भी कर लेते हैं तो क्या वह एक भी पेड़ को संरक्षण देने का काम नहीं करते होंगे? जबकि आदिवासी समुदाय के देवी-देवता वही पेड़-पौधे, जल, नदी पहाड़ रहे हैं। मेलघाट इस वक्त पानी की कमी से जूझ रहा है। तो क्या सारा पानी वे आदिवासी ही पी जाते हैं? यह सवाल सरकार और उनके नुमाईंदों को सोचना चाहिए? सारी छोटी- बड़ी नदियों पर डैम क्या आदिवासियों ने बनाए हैं? और उनका पानी रोककर वे क्या करते हैं? शायद पी जाते होंगे या बेच देते होंगे? बेचने की प्रवत्ति अगर उनके अंदर होती तो आज निसर्ग के नाम पर जो भी हमारे पास बचा है, शायद वह भी न बचा होता? मेलघाट से उजाड़े जा रहे आदिवासियों की पीड़ा और मौजूदा विकास के अंतर्विरोध को गहराई में जाकर समझने की जरूरत है.
naresh gautam
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