Tuesday 19 June 2018

महाराष्ट्र: रेलवे को मजदूरों से काम नहीं रहा तो उजाड़ी जा रही उनकी बस्तियाँ

केंद्र-राज्य की सरकारों ने इस वक्त सफाई की मुहिम छेड़ रखी है। उसी मुहिम के तहत शहरों को भी साफ किया जा रहा। यह सफाई कूड़े-कचरे के ढेर मात्र की कम, बल्कि इंसानों की ज्यादा चल रही है। ऐसे इंसान जो झुग्गी-झोपड़ियों अथवा कहीं भी सड़क के किनारे गुजर-बसर करते हैं। जो गरीब हैं, जिनके पास घर नहीं है। काम नहीं है, मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपना और बाल-बच्चों का पेट पालते हैं। दिल्ली हो या मुंबई कहीं भी ऐसी झोपड़ियाँ आसानी से देखी जा सकती हैं। सवाल उठता है कि ये लोग आखिर कौन हैं? कहाँ से आते हैं? यह सवाल किसी भी व्यक्ति के दिमाग में आ सकता है।
संवेदनशील ढंग से अगर आप सोचेंगे तो शायद पता भी चल जाए कि ये वही लोग हैं, जो बाकी समाज के लिए घर की सफाई से लेकर सब्जी पहुँचाने तक के सभी काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर स्वीपर से लेकर वॉचमैन तक कोई भी हो सकता है। जिन्हें आज इंसानों की गंदगी ठहराया जा रहा है, जो शहरों में उगी है उसके लिए जिम्मेदार हमारी सरकारें ही है। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले ये लोग बे जमीन व बेरोजगारी के कारण पलायन करते हैं। लोगों के पास रोजगार नहीं होगा, उनके पास ज़मीनें नहीं होंगी तो वे मजबूरन रोजी-रोटी की तलाश में कहीं भी जायेंगे, कुछ भी करेंगे और कहीं भी रहने को मजबूर होंगे। गाँवों में सबके लिए काम तो बचा नहीं, शहर कहीं न कहीं कुछ तो काम दे ही देता है। हाल ही में रिलीज हुई 'काला' फिल्म में इसी मुद्दे को बहुत संजीदा तरीके से उठाने की कोशिश की गई है। पर हर बस्ती, झुग्गी में काला जैसा हीरो नहीं होता।

ऐसा ही महाराष्ट्र के भुसावल में हो रहा है। भुसावल की पहचान एक तो केले के उत्पादन से होती है, दूसरा रेलवे से। भुसावल का रेलवे यार्ड एशिया में सबसे बड़ा माना जाता है। भुसावल के आधे से अधिक लोग इसी यार्ड में काम करते हैं। आज जिनमें आधे से अधिक लोग ठेके पर मजदूरी करते हैं और यही मजदूर अपनी-अपनी झुग्गी-झोपड़ी बना कर वहाँ रहते आए हैं। अब यार्ड में निर्माण के बहुत सारे काम बंद कर दिए गए हैं। जो काम चल रहे हैं, वह भी ठेके पर प्राइवेट कंपनियां करा रही है। अब रेलवे को इन मजदूरों की जरूरत नहीं रह गई है। उन्हीं मजदूरों की ये तमाम बस्तियां यहाँ से बेरहमी से उजाड़ी जा रही है। इन परिवारों की तीन-चार पीढ़ियाँ यहां पर रहती आई हैं। अमानवीयता का आलम तो यह है कि पहले इनकी बिजली काटी, फिर पानी तक बंद कर दिया। और अब सारी नालियाँ और सिवर लाइनें तक बंद कर दी गई हैं। रेलवे अपनी तमाम कॉलोनियों को तोड़कर वहाँ नया निर्माण करना चाहती है। वहाँ बसे लगभग हजारों परिवार अब बेघर होने की कगार पर हैं।

अलिशान बी, उम्र 45 वर्ष,
हमें बताती हैं कि हमारे अब्बा पहले यहाँ रहने आए। हम लोग यहीं पैदा हुए और अब बूढ़े भी हो गए। अब्बा तो बहुत पहले ही गुजर गए थे। बड़ा परिवार था, इसलिए अब्बा हमलोगों के लिए एक छत तक न बनवा पाये। हम सबका पेट भरने में ही उनकी कमाई खतम हो जाती थी। मैं अपनी बूढ़ी माँ के साथ यहां रहती हूँ। गरीबी के कारण मेरी पढ़ाई भी नहीं हो पाई। कहीं काम भी नहीं मिलता। फुटपाथ पर कुछ समान वगैरह बेचकर अपना काम चलाती हूँ। कभी चप्पल, तो कभी बच्चों के खिलौने आदि बेच कर अपना और अपनी बूढ़ी बीमार मां का पेट भरती हूँ। अपना दर्द बताते हुए वे कहती हैं, शरीर पर सफ़ेद दाग होने की वजह से मेरी शादी नहीं हो पाई। इतने सालों से यहाँ रह रहे हैं बमुश्किल सर ढकने को एक छत बना पाई हूँ। अब उसे भी रेलवे के लोग तोड़ देंगे। अब हम कहाँ जाएं अपनी बूढ़ी माँ को लेकर! हम तो कहते हैं कि रेलवे हमारे लिए कहीं जमीन दे, अगर वो भी नहीं दे सकती तो कहीं से हमें लोन दिलवाए। या वो खुद पैसा दे ताकि हमलोग कहीं एक चारपाई भर की जमीन लेकर अपना आशियाना बसा सकें।

शकुंतला बस्ते, उम्र 60 वर्ष।
शकुंतला अपने घर में अकेली महिला है। शरीर जर्जर हो चुका है। न बच्चे हैं, न पति, पति बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कहीं चले गए। घर जैसा घर तो नहीं, बस सिर छुपाने को जमीन मात्र है। इनकी भी तीन पीढ़ियाँ यहीं गुजरी हैं। कोई काम नहीं है। घरों में बर्तन धोकर अपना गुजारा करती हैं। जमा पूंजी के नाम पर बस यही एक टूटी- फूटी झोपड़ी मात्र है। वह अपने बुढ़ापे के आखिरी दिनों में कहाँ जाए? वह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताती है कि 70 के आसपास यहाँ आए थे और यहीं के रह गए। जब तके हाथ- पाँव में दम था, मजदूरी करके अपना पेट पाला। अब बुढ़ापे में यह विपदा आन पड़ी। कहाँ जायेंगे? क्या करेंगे? जब तक हमलोगों की यहाँ रेलवे वालों को जरूरत थी तब तक तो कुछ नहीं कहा, लेकिन आज वह अपनी जमीन खाली कराना चाहता है।

शांता बाई, उम्र 80 वर्ष।
मनमाड से यहाँ आई थी। बताती हैं कि वहाँ पर हमारे पास जमीन नहीं थी, खेत भी नहीं थे। मजदूरी करने यहाँ आए। कुछ काम हम लोगों को यहाँ मिल जाता था। बच्चे बड़े हो गए, शादियाँ कर अलग हो गए। मैं अकेली जान बची हूँ। सरकारी महकमे के लोग हर दूसरे-तीसरे दिन यहाँ आकर घर खाली करने को कहते हैं। पानी-बिजली सब काट दिया। नालियाँ तक जाम कर दी गई हमारी। भगवान भी मुझे उठा नहीं लेता! जाने किस बात का बदला ले रहा है। अब यहीं पड़ोसी हमारे सब कुछ हैं। अलिशान बी हमेशा मेरी मदद करती आई है। यहाँ से कहाँ जाएं? कौन देखेगा मुझे? मोहल्ले के बच्चों के साथ अपना दिन काट लेती हूँ। यहाँ से जाने की बात सोच कर ही दिल घबरा जाता है। जाने क्या होगा? यहाँ के आमदार, खासदार सबसे हमलोग मिले, लेकिन ये सब भी वोट लेने के वक्त ही दिखाई देते हैं। अब यहाँ कोई दिखाई नहीं देता। न ही हमारे मसले पर कोई खड़ा होता दिखाई दे रहा है।
शेख फिरोज, उषा बाई, हालिम सिकंदर, देवीदास भगवान दास नागा, हिरन्ना येरल्लो, ओंकार शंकर वांगर, लता बाई गोपालराव जादव, खैरुन निशा, सुनीता, विद्या आदि हजारों की संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके पास जीने-रहने का इसके सिवा कोई जरिया नहीं है। जमीन नहीं, ठीक से रोजगार नहीं। बस यही एक ठिकाना है जो अब उजड़ने वाला है। भुसावल के ऐसे ही लगभग 5000 हजार परिवार उजड़ने वाले हैं, जिसमें चाँदमारी चाल, हद्दीवाली चाल, आगवली चाल, लिंपूस क़ल्ब, चालीस बांग्ला चाल।। इन सारी चालों में परिवारों की संख्या लगभग 5000 के ऊपर होगी।




NARESH GAUTAM & SANDESH UMALE


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