Wednesday 10 October 2018

घर और नौकरी को तरसते घुमंतू समुदाय के लोग

देश में विकास की जो सरकारी बयार चली वहाँ आज कोई भी न तो गरीब बचा है, न ही कोई भूखा है और न ही कोई बेरोजगार! देश के मुखिया ने घोषणा कर दी है कि देश में विकास आ गया है, मतलब आ गया है। जो इस सरकारी आदेश को नहीं माने वो देशद्रोही!
आजादी के बाद देश में कई योजनाएं गरीबी, भुखमरी, बेरोजारी को दूर करने के लिए आयी और कागजों पर सिमट कर दम तोड़ती हुई खतम हो गई। गांधी, विनोबा भी चले गए पर स्थितियाँ आज भी लगभग वैसी की वैसी ही हैं। आजादी के सत्तर साल गुजर गए। इस बीच कई सरकारें आयी और चली गई। उन्होंने बड़े-बड़े वादों की फुलझड़ियाँ छोड़ी पर देश में कुछ जातियों की हालत जैसी पहले थी वैसी ही आज भी बनी हुई है। न उनके रहने में कोई विशेष बदलाव आया है और न ही खान-पान व पहनावे-ओढावे में। विनोबा ने देश भर में भूदान चलाया, तमाम सरकारी योजनाओं ने भूमिहीन के लिए भूमि वितरण और आवंटन किया, लेकिन कुछ जातियों के लोग आज भी वैसे ही बेजमीन ही बने हुए हैं, जैसे पहले थे। जिन्हें थोड़ी-बहुत जमीन मिली भी उन्हें आज तक उनके कब्जे हासिल नहीं हो पाये। बहुत लोगों के पास तो अभी भी घर तक बनाने की भी जमीन नहीं है। देश में परिधान मंत्री ने घोषणा कर रखी है कि घर-घर में शौचालय हो लेकिन जिनके घर ही नहीं उनके लिए कुछ भी नहीं सोचा। 
राजस्थान के अलवर जिला मुख्यालय से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर दिल्ली हाइवे के किनारे एक बड़ी बस्ती है। जहाँ यह बस्ती बसी है वह जमीन संभवतः सरकारी है अथवा ऐसे ही खाली पड़ी किसी की निजी मिल्कियत। लेकिन नट जाति के लोगों के घर तो बदलते रहते हैं। जहाँ जैसा काम वहाँ वैसा घर!
नट जाति के ही हेमों की उम्र लगभग 35 साल होगी। वह अपने बारे में बताती है कि सरकार से हमलोगों ने और बहुत सारे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बात की। कई योजनाएं भी है लेकिन हमें आज तक कुछ भी नहीं मिला है। पहले हम लोगों के पास राशन कार्ड नहीं थे, आधार कार्ड भी नहीं था लेकिन अब ये सब तो हमारे पास मौजूद है, उसके बावजूद भी आज तक हमें सरकार ने देश का नागरिक ही नहीं समझा है। आगे वह बताती है कि हमारा गाँव हलेनायहीं नजदीक ही है। रहने को घर तो है लेकिन हमारे पास न तो खेती की जमीन है और न ही हमारे पास और कोई रोजगार ही है। उसके 3 बच्चे हैं। बड़ी लड़की व्याह के काबिल होने को है। इसलिए उन्हें घर- गाँव छोड़ जंगलों में रहना पड़ रहा है। वे रंज के साथ बताती हैं कि हमें जहाँ काम मिलता है वहाँ हम परिवार सहित चले जाते हैं। इसके अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है।
उसी बस्ती की अनीता(उम्र 50 वर्ष)बताती हैं कि मेरे पति शादियों में बैंड बजाने का काम करते हैं। लेकिन यह काम शादियों के सीजन भर ही चलता है। उसके बाद कोई काम नहीं रहता। उसके पेट के दो ऑपरेशन हो चुके हैं और वह अभी कोई काम नहीं कर सकने की स्थिति में है। अब पति को जो भी जहाँ भी काम मिलता है गुजारे के लिए वह करना पड़ता है। गाँव-घर में कहीं भी खेती नहीं है। तो सड़कों पर गुजारा करना पड़ता है। उसके 5 बच्चे हैं। जिसमें दो लड़कियाँ हैं। एक लड़की की शादी हो चुकी है बाकी अभी सबकी शादी करनी बाकी है। पति के पास कोई ठोस काम नहीं है। बच्चे भी अभी छोटे हैं। जैसे-तैसे एक टाइम का खाना सबको नसीब हो जाता है। बच्चों की पढ़ाई पर सवाल करने पर वह कहती है कि जब खाने को ठीक से नहीं है तो आगे क्या सोचें?

कृष्णा अपने बारे में बताती है कि 5 बच्चे मेरे भी हैं। मेरा जहाँ जन्म हुआ वह पिलवा नामक गाँव यहीं अलवर में ही है। लेकिन वहाँ कोई भी रोजगार हम लोगों के लिए नहीं था। इसलिए गाँव को छोड़ना मजबूरी हो गया। नहीं तो कौन अपना गाँव, जड़, जमीन छोड़ता है। हमारे पास खेती बिल्कुल भी नहीं है। खेती के लिए कई लोगों से मिली कुछ लोगों ने कुछ पैसे भी खा लिए लेकिन खेती की बात आज तक नहीं बन पाई, मैंने कई बार प्रयास किया। लेकिन आज तक कोई मामला नहीं बन पाया। पति कहाइन अन कहीं मजदूरी करके परिवार का पेट पालते हैं। मैं भी कुछ न कुछ करके थोड़ा- बहुत पैसा कमा लेती हूँ। बाकी जंगल अपने तो हैं ही। पुलिस ने डंडा मारा तो रातों-रात कहीं और झोपड़ियाँ बना लेते हैं। बस अब यही हमारी ज़िंदगी बन गई है।

ऐसी हजारों कहानियों से भरा पड़ा है अलवर के पास का क्षेत्र। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले हर परिवार की यही कहानी है। आजादी के सत्तर सालों में इन परिवारों तक आजादी की रौशनी नहीं पहुंच पाई। बावजूद इसके अगर देश के हुक्मरान कह रहे हैं कि देश का विकास हो गया तो मानना ही पड़ेगा न! अन्यथा देशद्रोही बनने का जोखिम उठाना पड़ेगा!

नरेश गौतम 
nareshgautam0071@gmail.com

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