Wednesday 10 October 2018

#एक_घटना_जिसने_दिमाग_में_सवालों_का_सैलाब_ला_दिया

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राजस्थान के अलवर जिला मुख्यालय से मात्र 14 किलोमीटर की दूरी पर रामगढ़ रोड MIA के पास रहने वाले तमाम लोग दूर से देखने पर आपको वैसे ही दिखाई देते हैं जैसे आमलोग दिखते हैं। पर उनके पास जाते ही या कहें कि सड़क से गाड़ी उतारते ही आपको एक अलग दुनिया का एहसास होने लगेगा। अब सोचने वाली बात यह है कि आखिर ऐसा क्या है वहां कि सड़क से उतरते ही वह जगह अलग लगने लगती है।
कई बार आप ऐसी जगह पहुँच जाते हैं जहाँ आपको सबसे अधिक असहज मासूस होने लगता है। और यह असहजता ही आपके कई सवालों के जवाब भी दे जाती है। वैसे ही वहाँ पहुँचने पर मेरे चेहरे के भाव भी बदल चुके थे। और यह हाव-भाव सिर्फ मेरे जेहन में उठने वाले सवालों की वजह से थे। इसलिए नहीं कि वहां के लोग क्या कर रहे थे, बल्कि इसलिए यह सब 21वीं सदी में भी कैसे हो रहा है! उसपर भी जहां एक तरफ सरकार 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा लगा रही है, वहीं ये बेटियां अपना जिस्म बेचने को मजबूर हैं। जबकि उस जगह पर जाने से पहले ही रास्ते में मुझे साथ चल रहे वीरेंद्र जी ने उस जगह के बारे में और वहाँ होने वाली प्रैक्टिस के बारे में बताया था। लेकिन किसी के मुंह से सुनने और प्रत्यक्ष के अनुभव कई बार अलग हो जाते हैं।

उसी तरह जब नेपाल की यात्रा पर गया था, उस वक्त के भी कुछ अनुभव ऐसे ही थे। पर वहां यह काम बिचौलिये कर रहे थे। इससे पहले मुझसे किसी महिला या एकदम बच्ची दिखने वाली लड़की ने एकदम सामने से एप्रोच नहीं किया था। बाकी मैं ऐसी तमाम जगहों पर गया हूँ। बल्कि इससे पहले मैंने अपना एम. फिल. का लघुशोध भी इसी तरह की एक कमन्युनिटी पर किया था। लेकिन वहाँ के अनुभव यहां के अनुभवों से बिल्कुल ही अलग थे। लेकिन वहां जाने पर इस किस्म का अजीब सा महसूस नहीं हो पाया था। बस सुबह चलते-चलते वहां के घर देखे और कुछ लोगों को सजते हुए भी, शायद एकदम सुबह का समय था, इसलिए ज्यादा लोग घर के बाहर नहीं आए थे। वापस आते समय थोड़ा वक्त गुजर चुका था और लगभग 12 बज चुके थे। आते समय हमने वहाँ पर कुछ देर रुकने का निर्णय लिया। वीरेंद्र जी के लिए तो सहज था क्योंकि वह एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, 'गरीब जन आंदोलन' संगठन के माध्यम से वे गरीब और इस तरह के तमाम लोगों की आवाज उठाते रहते आए हैं। लेकिन यह मेरे लिए एकदम ही कठिन था, बात करने में मैं ऐसा महसूस कर रहा था जैसे जीवन में पहली बार किसी लड़की से बात कर रहा हूँ, उसने बिना कुछ पूछे और जाने, सीधे सवाल किया जिसकी शायद मैं उस वक्त उम्मीद नहीं कर रहा था। सवाल एकदम सीधा और सटीक था, बैठना है क्या? (यहां बैठने का मतलब सेक्स करने से है) सवाल इतनी जल्दी में पूछा गया था कि मुझे पहली बार में समझ ही नहीं आया कि क्या जवाब दूं।

लेकिन दिमाग तो अपना काम कर ही रहा था। दूसरी बार पूछने और चारों तरफ से तमाम बुलाने की आ रही आवाजों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे लोग हम लोगों को भी अपना ग्राहक समझ कर बात कर रहे थे। एक बार की कीमत मात्र 200 ₹ है। जो चाहे पसंद कर लो, माँ या बेटी या फिर दोनों बारी-बारी, जिसमें आपकी फैन्ट्सी पूरी हो।

जितनी भी लड़कियाँ कुछ देर के अंतराल में वहां देख पाया उनकी उम्र लगभग 12 से लेकर 20 के बीच की रही होगी।

यह बात मैं किसी और जमाने या दूसरी दुनिया की नहीं कर रहा बल्कि मात्र अलवर मुख्यालय से 14 किलोमीटर बाहर निकलते ही एक दुनिया है। जहाँ यह सब होता आपको दिखाई दे सकता है। ऐसा नहीं है कि प्रशासन को इसके बारे में खबर नहीं है। वैसे मेरा नजरिया देखा जाए तो मैं इसे गलत नहीं मानता। लेकिन वह भी परिपक्व उम्र में बिना किसी मजबूरी के अपनी स्वेच्छा से अगर कोई यह पेशा चुनता है तो फिर मैं इसे बहुत नैतिक-अनैतिक के बहस के दायरे में इसे नहीं देखता। यह उनकी मर्जी। किन्तु छोटी-छोटी बच्चियों को इस पेशे में देखकर मेरी ज्यादा देर वहाँ रुकने की और उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हुई। मैं वहाँ से निकलते ही तमाम तरह के विचारों में खो गया। क्योंकि कोई समुदाय सेक्स की इस प्रैक्टिस में आखिर किन हालातों में उतरा होगा! उसके पीछे क्या ऐतिहासिक कारण हो सकते हैं? यह सब पुलिस- प्रशासन की नाक के नीचे आखिर कैसे हो रहा है! गरीबी-लाचारी, भुखमरी या फिर कोई और वजह ??? ऐसे कई सवाल मेरे संवेदनशील मन में अभी भी कौंध रहे हैं।

इन सारे सवालों के जवाब ढूंढने के लिए शायद दूसरी बार यहां आना पड़े...


naresh gautam
nareshgautam0071@gmail.com






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