खेड़ा
जिले के एक गाँव का हाल
अक्टूबर 2018 के अंतिम सप्ताह में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र के
सोशल वर्क के स्टूडेंट्स के साथ शैक्षणिक भ्रमण हेतु गुजरात जाना हुआ था। हम कुल दो
दर्जन की संख्या में थे। यात्रा पर निकलते हुए सभी गुजरात के विकास मॉडल को देखने
को लेकर काफी उत्साहित थे। इस शैक्षणिक भ्रमण के दरम्यान गुजरात के शहरी क्षेत्र
में विभिन्न जगह जाना हुआ। साथ ही हम खेड़ा और वारडोली के आसपास के ग्रामीण
क्षेत्रों में भी गए। वारडोली इलाके के कुछ आदिवासी गांव को भी हमने करीब से देखा।
कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए। खेड़ा और वारडोली स्वतंत्रता आंदोलन के उन चर्चित गाँवों में
से रहे हैं, जो भारतीय इतिहास में किसान आंदोलन के लिए जाने जाते
हैं। खेड़ा में आज से एक सौ वर्ष पूर्व सन् 1918 में बहुचर्चित किसान आंदोलन हुआ था।
इस आंदोलन का नेतृत्व स्वयं गांधीजी ने किया था। वहीं वारडोली में वर्ष 1928 में सरदार
पटेल के नेतृत्व में किसानों का चर्चित आन्दोलन हुआ था। बताया जाता है कि यहीं के लोगों
ने उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि भी दी थी। फिलहाल
हम यहाँ खेड़ा जिले के एक गाँव की स्थिति के बारे में यहाँ चर्चा कर रहे हैं।
भयानक
जातिवाद कायम है गुजरात के गाँवों में :
खेड़ा के गांवों में
भयावह जातिवाद से हम सभी रु-ब-रु हुए। प्रथम दृष्टया इस किस्म का जातिवाद देश के दूसरे
हिस्से में शायद ही देखा जा सकता है। जब छात्र-छात्राएं खेड़ा के मातर तालुके के एक
गांव के जनजीवन के अध्ययन के क्रम में ग्रामवासियों के घरों में गए तो लगभग सभी
विद्यार्थियों से उनकी जाति जरुर पूछी गई। पहली मुलाक़ात में कैसे कोई किसी की जाति
पूछ सकता है, यह हम सबको हैरान करने वाली बात थी। जाहिर
है ग्रामीणों का रिस्पॉन्स भी जाति से प्रभावित था। लगभग 450
परिवार वाले इस खड़ियालपुरा नामक गांव में 1600 के करीब
मतदाता हैं। इससे अंदाजा लगता है कि गांव की कुल आबादी 2500
के करीब रही होगी। इस गांव में गुजरात की दो भूस्वामी जाति पटेल व ठाकोर (क्षत्रिय)
जाति का वर्चस्व है। संख्या के मामले में तीसरे नम्बर पर तड़पदा जाति है, यह कुशवाहा-कोइरी जाति से मेल खाती हुई जाति है। यह खेतिहर जाति है किंतु
इनमें से ज्यादातर लोग बेजमीन हैं और पटेलों व ठाकोरों के खेतों में मजदूरी करते
हैं। गांव की ज्यादातर जमीनें पटेल व ठाकोर जाति के पास ही है। इन जातियों में भी
भूमि का वितरण एक समान नहीं है। गांव में 30 के आसपास
मुस्लिम परिवार भी हैं, जो कई पीढ़ियों से वहां रहते आ रहे
हैं। इन तीस परिवारों में से तकरीबन दस परिवारों को एक-डेढ़ बीघा करके जमीनें हैं,
बाकी परिवार भूमिहीन हैं। गांव में एक दलित परिवार भी कई पीढ़ियों से
रहता आ रहा है।
सम्भवतः गांव की साफ-सफाई व मरे हुए जानवरों आदि को फेंकने की
जरूरतों की पूर्ति करने हेतु ही उसे बसाया गया हो। वह परिवार आज भी भूमिहीन है और
सफाई का काम करता है। दो भाइयों में एक भाई अहमदाबाद में सफाई का काम करता है और
वहीं अपने परिवार के साथ रहता है जबकि दूसरा भाई अपने बीबी-बच्चों के साथ गांव में
ही रहता है। गांव के बड़े भूस्वामियों के मकान और दरवाजे आज भी पुराने किस्म की
जमींदारी ठाठ-बाट की याद ताजा कराते हैं।
गांव में आधा दर्जन
के करीब छोटे-बड़े मंदिर हैं, जो हिन्दू देवी-देवताओं
के हैं। गांव के शुरू में एक भव्य काली, शिव और पार्वती का
मंदिर है, जिसे पटेलों व ठाकोर जाति के लोगों ने बनवाया है।
इसके अलावा योगिनी माता का भी एक मंदिर है। दुर्गा पूजा का आयोजन जहां पटेल जाति
के लोग बढ़-चढ़कर करते हैं वहीं दीपावली का आयोजन ठाकोर जाति के लोग। दोनों एक-दूसरे
के आयोजनों से दूरी भी बनाए रहते हैं। मंदिरों में अलग-अलग जातियां एक साथ पूजा
करने नहीं जाते। मुस्लिम टोले में हाल ही में एक मस्जिद बना है। ग्रामीणों के साथ
सामान्य बातचीत से ही गांव में जातिगत ऊंच-नीच और आपसी अंतर्विरोध का आसानी से पता
चल जाता है। पटेल ठाकोरों को पसंद नहीं करते तो ठाकोर भी पटेलों को पसंद नहीं
करते।
गाँव
की कृषि :
जब हम गांव गए थे, उस वक्त खेतों में धान की शानदार फसल लहलहा रही थी। कुछ खेतों में धान की
फसल पक चुकी थी और कुछ में उसकी कटाई व तैयारी का काम चल रहा था। धान की कटाई का
काम पुराने परम्परागत तरीके से ही चल रहा था, उसके लिए
आधुनिक यंत्रों के बजाय मजदूरों के जरिये ही पूरी कटाई व डंगाई का काम चल रहा था।
पानी की पर्याप्त उपलब्धता थी, केनाल से भी खेतों की सिंचाई
होती है और बड़े भूस्वामियों के पास खेतों के पटवन हेतु अपना खुद का बोरिंग भी है।
जिन छोटे किसानों के पास अपना बोरिंग नहीं है, वे पड़ोस के
बड़े किसान के बोरिंग से पानी खरीदकर अपने खेतों की सिंचाई करते हैं। गांव के
ज्यादातर बड़े किसान अपनी खेती ठेके पर दे देते हैं। ठेके पर खेती करने वाले एक
किसान ने हमें बताया कि एक बीघा जमीन के बदले भूस्वामी को सालाना तीस हजार रुपए का भुगतान करना पड़ता है। किसान गाय-बैल व भैंस-बकरी आदि भी पालते हैं और
उसके मल-मूत्र को खेतों में डालते हैं।
वे रासायनिक खाद व कीटनाशक का भी इस्तेमाल
करते हैं। धान के साथ-साथ गेंहू, ज्वार, अरहर व शाक-सब्जी भी भरपूर मात्रा में उगाते हैं। किसान उत्पादित फसल को
मातर, खेड़ा से लेकर अहमदाबाद तक जाकर बेचते हैं। देश के अन्य
किसानों की भांति यहां के किसानों की भी शिकायत थी कि उन्हें उत्पादित फसल का
वाजिब दाम नहीं मिलता है। गांव के भूमिहीन परिवारों के स्त्री-पुरुष खेत मजदूरी
करते हैं और गुजरात के अन्य हिस्सों व बिहार, उत्तर प्रदेश,
राजस्थान व मध्य प्रदेश से आए मजदूरों से खेती का काम कराया जाता
है। हमें वहां गुजरात के ही गोधरा तथा बिहार व यूपी के मजदूर धान की कटाई में लगे
हुए मिले। मजदूरों को 200 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी
दी जाती है।
शिक्षा
की स्थिति :
गांव में शिक्षा की
हालत अत्यंत ही चिंताजनक है। वहां आठवीं तक का एक स्कूल है। उसके बाद बच्चों को यहाँ
से कोई चार-पाँच किमी दूर मातर तालुका पढ़ने जाना पड़ता है। और उससे आगे की पढ़ाई के लिए
25 किमी दूर खेड़ा जाने का विकल्प मौजूद है। इतनी आबादी वाले गांव में मात्र आठवीं
तक के स्कूल का होना गुजरात की शिक्षा की स्थिति की पोल खोल देता है। लोग अपने बच्चे
को आगे पढ़ने भेजना भी चाहें तो सबके पास रोज के यातायात का खर्च उठाने की क्षमता नहीं
है। सरकारी बस की भी गाँव तक पहुँच नहीं है। ऐसी सूरत में ज्यादातर लोग उच्च शिक्षा
से वंचित रह जाते हैं। इस कारण भी गांव में शिक्षा को लेकर गहरी उदासीनता है।
मैट्रिक-इंटरमीडिएट से ज्यादा पढ़ने वालों की तादाद नाम मात्र ही है। पटेल जाति
तुलनात्मक तौर पर अन्य जातियों के मुकाबले ज्यादा शिक्षित है। क्योंकि ये आर्थिक
तौर पर भी अन्य के मुकाबले सबल हैं। बालिका शिक्षा की स्थिति काफी चिंताजनक है। नई
पीढ़ी की पढ़ाई-लिखाई को लेकर न तो सरकार की ही कोई चिंता है और न ही समाज के भीतर
ही कोई बेचैनी। यह स्थिति कमोबेश गुजरात के सभी गांवों की है। उच्च शिक्षा को लेकर
पूरे गुजराती समाज में भयानक उदासीनता देखी जा सकती है। शिक्षा विहीन ग्रामीण विकास
के मॉडल का आप यहां के गांवों में दर्शन कर सकते हैं। इसके विपरीत अगर आप
महाराष्ट्र के गांवों में जाएंगे तो वहां आपको शिक्षा की जबरदस्त भूख दिखाई देगी।
खुले
में शौच :
इस गांव में आज भी
बड़े पैमाने पर लोग खुले में शौच करने जाते हैं। गुजरात से आने वाले वर्तमान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे देश को स्वच्छता का पाठ पढ़ाते फिर रहे हैं, जबकि उनके गृह राज्य के गांवों की यह स्थिति बनी हुई है। जहां वे लगभग दो
दशक तक मुख्यमंत्री भी रहे हैं और आज भी उन्हीं की पार्टी भाजपा की वहां सरकार चल
रही है।
गांव के मुख्य मार्ग के किनारे सड़क के दोनों किनारे पखाने की दुर्गंध
आने-जाने वालों को नांक पर हाथ रखने के लिए विवश कर देता है। गांव के सरपंच से इस
मुद्दे पर जब हमारे विद्यार्थियों ने बात की तो उन्होंने दो टूक कहा कि 'यह गांव है और गांव में ऐसा ही चलता है। पुराने लोग शौचालय के बजाय खुले
में ही शौच जाना पसंद करते हैं।' सरकारी योजना के तहत गांव
में कुल 60 शौचालय जरूर बनाए गए हैं।
आतिथ्य
व आत्मीयता :
हालांकि गांव में
हमें कुछ दूसरे अनुभव भी हुए। एमफिल के तीन छात्रों के साथ मैंने भी गांव का एक
चक्कर लगाया। एक घर के बाहर एक अधेड़वय महिला मिट्टी के चूल्हे में लकड़ी जलाकर
ज्वार की रोटी सेंक रही थी। खास बात यह थी कि मिट्टी के तवे में रोटियां सेंकी जा
रही थी। हम थोड़ा ठहरकर देखने लगे थे। कुछ सेकेंड में ही महिला ने मुस्कुराते हुए
गुजराती में कहा कि 'खाओगे'! वहां
के रहन-सहन व खान-पान का करीब से अनुभव करने के खातिर हम सबने भी 'हाँ' कह दिया और चूल्हे के समीप बिछे खाट पर बैठने
लगे। इतने में एक बूढ़ी महिला घर के अंदर से बाहर आई और रोटी बना रही महिला से
गुजराती में कुछ बात करते हुए वापस घर के अंदर दाखिल हुई और हमें घर के अंदर आने
को कहने लगी। उनके आग्रह पर हम घर के अंदर गए। घर अत्यंत ही साधारण किन्तु काफी
साफ-सुथरा था। दो कमरे वाले उनके घर का छत और फर्श दोनों पक्की था। हम चारों के
बैठने के लिए पर्याप्त कुर्सी नहीं थी, एक कुर्सी पास में
जरूर पड़ी थी और उसके बगल में एक खाट बिछी हुई थी। हमलोग उन्हें असमंजस में डाले
बगैर फर्श पर बैठ गए।
इतने में घर का 40 वर्षीय पुरुष सदस्य
एक आधे लीटर के बोतल में पास के किसी घर से फ्रीज का ठंडा पानी लेकर आ गए। तब तक
वह बूढ़ी महिला चार ग्लास व चार थाली लेकर आ गई थी। सब कुछ इतना झटपट हो रहा था कि
हम उनके आतिथ्य व आत्मीयता से भाव विभोर हो रहे थे। इतने में दो कटोरे में बेसन की
गाढ़ी करी लेकर वह पुरुष आया और उसके बाद वह बूढ़ी महिला भी दो और कटोरे में वही
भरकर ले आई। हम सभी मना करते रहे कि हमलोग नास्ता करके आए हैं, केवल थोड़ा-थोड़ा चखेंगे। किन्तु वे कहती रहीं कि पेट भरकर खाओ! फिर ज्वार
की एक-एक गर्म रोटियां हमारी थाली में उसी बूढ़ी महिला ने डाल दिया। लकड़ी की आग पर
मिट्टी के बर्तन में पकाई गई एक-एक रोटी खाने के बाद वह दूसरा रोटी लेने की जिद्द
करने लगी। रोटी और करी काफी स्वादिष्ट बनी थी, किन्तु हमलोग
उनपर ज्यादा बोझ डालना नहीं चाहते थे। सो हमने और लेने से मना कर दिया, किन्तु उन्होंने जबरन दो और रोटियां हमारी थाली में डाल दी। उसे बांटकर हम
चारों ने खाया। हम खा ही रहे थे कि वह बूढ़ी महिला एक कांच के बड़े बोतल को लेकर आई
और उसे खोलकर उसमें से कुछ गोल-गोल टाइप चीज निकालकर हमारी तरफ वात्सल्य पूर्ण
तरीके से बढ़ा दिया। फिर जब हमने उसे हाथ में लेकर देखा तो वह आंवले का नमकीन अचार
था। किंतु अचार अभी बनकर तैयार नहीं हुआ था, शायद उसे एक-दो
रोज पूर्व ही निम्बू के रस और नमक में डाला गया होगा।
बावजूद इसके उनके स्नेह को
देखते हुए हमने उसे खा लिया। जो न खा सके उन्होंने नजर बचाकर उसे पानी से धुलकर
अपनी जेब में रख लिया, ताकि उनके स्नेह का अपमान न हो,
उन्हें बुरा न लगे। खाने के बाद हमने उन सबों का शुक्रिया अदा किया
और आगे बढ़ चले। उनके इस आतिथ्य व आत्मीयता ने हमें भारतीय गांवों के आतिथ्य भाव की
याद ताजा करा दी। अहम बात यह कि इस परिवार ने न तो हमारी जाति ही पूछी और न ही
धर्म। वैसे भी भूख और रोटी के बीच किसी जाति-धर्म का मतलब भी नहीं होता।
इस गांव में एक दर्ज
करने वाली बात खुद हमने और हमारे विद्यार्थियों ने महसूस किया कि गांव के साधारण
परिवारों ने जहां हम सबको प्रेम व स्नेह भरी नजरों से देखा और उसी जीवंतता के साथ
हम सबों से मिले-जुले। वहीं गांव के बड़े भूस्वामियों के चेहरे पर हमारे प्रति नफरत
का भाव आसानी से पढ़ा जा सकता था। वे सीधे मुंह हमसे बात करने तक को तैयार नहीं थे।
गांव के असमान विकास के बीच व्यवहार की यह असमानता समाज के विकास की दिशा को ही
रेखांकित करता है।
(क्रमशः
अगले किस्त में जारी...)
डॉ.
मुकेश कुमार
फोटो आभार- प्रेरित बथारी
लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
सार्थक जानकारी।
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