Wednesday 18 October 2017

कान्हा से कोर तक

कान्हा भारत के प्रमुख राष्ट्रीय उद्यानों में से एक माना जाता है। और एशिया के सबसे खूबसूरत वन्यजीव रिजर्वो में गिना जाता है।  इसे पर्यटन के हिसाब से 8 भागों में विभाजित किया गया है। जीव-जन्तुओं के लिए संरक्षित यह पार्क 940वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। जहाँ तमाम विलुप्त प्रजातियों के जानवरों का संरक्षण किया जाता है। 1955 में इसे राष्ट्रीय पार्क में शामिल किया गया। इससे पहले यहाँ जानवरों का शिकार करना आम बात हुआ करती थी।  राष्ट्रीय पार्क में शामिल किए जाने पर लगभग 23 गाँव इस क्षेत्र से विस्थापित किए या ये कहें तो ज्यादा बेहतर होगा कि उन्हें उखाड़ फेका गया। जिनके तमाम परिवार आज भी उस दंभ को झेल रहे हैं।      
कहते हैं कान्हा राष्ट्रीय पार्क से ही रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध किताब और धारावाहिक जंगल बुक के किरदारों की प्रेरणा यही से मिली। 
यह राष्ट्रीय पार्क 945 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। कान्हा को 1933 में अभयारण्य के तौर पर स्थापित कर दिया गया और इसे 1955 में राष्ट्रीय पार्क घोषित किया गया। 
उगते हुये सूरज की रोशनी में इसकी खूबसूरती और चमकदार हो जाती है। यह पूरा क्षेत्र सतपुड़ा की पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इन पहाड़ियों की ऊंचाई 450 से 900 मीटर तक फैली है। इसके अन्तर्गत बंजर और हेलन की घाटियां भी आती हैं जिन्हें पहले मध्य भारत का प्रिन्सेस क्षेत्र कहा जाता था। 1879-1910 ईसवी तक यह क्षेत्र अंग्रजों के शिकार का स्थल हुआ करता था।   
हजारों घरों को तबाह कर इसे पार्क में तब्दील इसलिए किया गया ताकि यहाँ जानवरों को संरक्षित किया जा सके। कोर एरिया में सिर्फ वही लोग आ-जा सकते जो यहाँ  गार्ड और रेंजर नियुक्त हैं। यदि वाकई इसे जानवरों के लिए संरक्षित किया गया होता तो यहाँ रोज सैकड़ों की संख्या में गाड़ियों का आवागमन नहीं होता।   
कोर एरिया में रहते हुये आदिवासी जंगल को नुकसान पहुँचा रहे थे। शेर, बाघों और चीते का शिकार कर रहे थे। वह वहाँ के जानवरों की खालों का व्यापार करते रहे होंगे। उनकी वजह से ही जंगलों में शेर और चीते नहीं रहे। अब जंगलों में रहने वाले इंसानों से अधिक जानवरों को सुरक्षित रखने के लिए योजनायें बनाई जा रही हैं। और यह योजनाएं वह लोग बना रहे हैं जो ना तो ठीक से इंसान को जानते और ना ही जंगल को। यदि वह जंगल और वहाँ रहने वाले लोगों और जानवरों को ठीक से जानते होते तो उन लोगों को वहाँ से निकालने की नौबत ही न आती। जब कि जंगलों को ठीक से जानने वालों का मानना है कि जानवर और इंसान एक दूसरे के पूरक होते हैं।  जानवर भी इंसानों के आस-पास ही रहना पसंद करते हैं। खैर हम तो बात कर थे। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान की (इको सेंटर की) महीने और सालों का हिसाब लगाया जाए तो लाखों की संख्या में लोग उस उद्यान के जानवरों को देखने आते हैं। करोड़ो रुपए का व्यापार वहाँ फैला है। 

हजारों की संख्या में कोर एरिया में गाड़ियों का आना जाना है। सुबह से शाम तक यह काम चलता ही रहता है। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के बीचो-बीच से लगभग 23 गांवों को वहाँ से निकाल कर उसे कोर मे तबदिल कर दिया गया। और कारण यह बताया गया कि आदिवासी जंगलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। जानवरों का शिकार करते हैं। उनकी वजह से शेर और चीते अब जंगलों में नहीं रहे। इसलिए उन इंसानों को जंगलों से निकाल कर उसे जानवरों और पर्यटकों के लायक बनाया गया। अब कोर एरिया में आप को शेर और चीता जैसे जानवर चाय और समोसे खाते हुये दिखाई दे सकते हैं।             
यह बात आप को पढ़ते हुये अजीब लग सकती है। कि क्या वाकई जानवर भी चाय समोसा खाते होंगे। लेकिन वहाँ जाने पर मुझे भी लगा था, पर अब नहीं! कारण स्पष्ट है कि ऐसी जगहों पर टूरिज़म कैसे बढ़ाया जाए। जाहिर सी बात है लोगों को सुविधाएँ दी जाए। वह चाहे जंगल के अंदर हो या फिर बाहर। क्योंकि इससे ही आमदनी बढ़ाई जा सकती है।      
हजारों कि संख्या में लोग वहाँ जानवरों को देखने तीन-तीन शिफ़्टों में जाते हैं। पहली शिफ्ट होती है सुबह 6:30 से 11 बजे तक दूसरी शिफ्ट दोपहर 3 बजे के बाद। और सबसे रोचक रात की शिफ्ट होती है। शाम 7 बजे से रात 10 बजे तक। रात की शिफ्ट अपने आप में जंगल सफारी करने वालों के लिए रोचक ही होगी। शांत जगल में सोते हुये जानवरों को जगाते हुये उनकी आवाज़े सुनना उन्हें परेशान करना। मुझे तो यह बिल्कुल ही समझ नहीं आया कि यहाँ इकोलॉज़ी बची कहाँ? जब पूरे समय वहाँ के जानवर आती-जाती गाड़ियों की आवाजों से डरते रहते होंगे। गाड़ियों की आवाजों से अपने आप को बचाने की कोशिश करते रहते होंगे। खैर मुझे सबसे ज्यादा अचरज की बात तो तब लगी जब मुझे यह पता लगा की कोर एरिया के सेंटर पॉइंट मे एक कैंटीन और शौपिंग के लिए कुछ दुकानें भी हैं।  

वह भी तमाम आधुनिक सुख सुविधाओं सहित। आपको वहाँ चाय समोसा के अलावा कपड़े जूते चप्पल आदि भी मिल जायेंगे। अब जाहिर सी बात है कि जंगल में जानवरों को तो इनकी जरूरत नहीं ही पड़ती होगी। पर कहा भी नहीं जा सकता जमाना बादल रहा है शायद इस बदलाव को जानवरों ने भी मान लिया होगा। लेकिन मुझे वहाँ जानवर तो कम ही दिखाई दिये। पर इंसानों और गाड़ियों की कोई कमी नहीं थी। सैकड़ों की संख्या में गाडियाँ और हजारो की संख्या में इंसान। 
जंगल मे बाघ को हम लोग देखने आते हैं या बाघ हमें देखता है। शायद देखता भी होगा कि इंसान अपने मनोरंजन के लिए किसी को भी बंदर बना सकता है। और मदारी होते हैं जंगल को इकोलोजीकल की परिभाषा मे ढालने वाले लोग। जंगल के अंदर रहने वाले रहवासियों से जानवरों को ख़तरा था। वहाँ रहने वाले आदिवासी जिनकी मद्दद से आज भी जंगल में अधिकारी और सुरक्षागार्ड अपना काम करते आए हैं, और शायद करते भी रहेंगे। पर पढ़े लिखे लोगों का मानना रहा है कि वही लोग जंगलों को नुकसान पहुँचते रहे हैं। वह शिकार करते हैं जानवर को मरते हैं और उन्हें अपना भोजन बना कर खा जाते हैं। पर देखने से तो ऐसा नहीं लगा। 
कभी भी यह सुनने और देखने में भी नहीं आया कि आदिवासियों ने बाघ, चीते या फिर शेर का शिकार किया और अगर वह यह करते होते तो आज क्या बहुत पहले ही उनका अंत हो चुका होता। यह तो वहीं लोग करते आए हैं जो यह जानते हैं कि राष्ट्रीय बाजार में शेर के बाल और खाल की क्या कीमत है? जो लोग अपने पास के साप्ताहिक बाजार में आज भी अनाज के बदले सब्जीयाँ लेते हो। 
ज्यादा से ज्यादा चीजों को उगा कर या जंगलों को बिना नुकसान पहुंचाये प्राप्त करते हों उन्हें शेर और चीते को मार कर क्या मिलता होगा या कभी मिला होगा। यह शायद वह लोग ज्यादा ठीक से बता सकते हैं जो देशी और जंगली चीजों के स्वाद किसी भी कीमत पर पाने के लिए हजारों किलो मीटर का सफर तक तय करते हैं। और उसकी किमतें चुकाते आए हैं यहाँ के रहवासी लोग ...

©Naresh Gautam

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