Thursday 2 June 2022

मजबूरी या विलासिता का पर्याय है सेक्सवर्क

दुनिया के हर देश में सेक्स वर्क करने वाले लोग मिल जायेंगे। कुछ देशों में इसे संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है और कुछ देशों में इसे धर्म के संरक्षण में किया जाता है। कुछ लोग इसमें मजबूरीवस भी शामिल होते हैं तो कुछ लोग स्वेच्छा से भी! भारतीय सामाजिक संरचना की जिस तरह से बनावट है वहाँ साधारण लोगों को स्वेच्छा से इस पेशे में शामिल होना मुश्किल ही दिखाई देता है। लेकिन बदलते परिवेश में जिस तरह से लोगों की जीवन शैली में बदलाव आया है। उसमें यह भी शक नहीं है कि लोग अपनी विलासता और धन के अधिक लालच में, विलासिता पूर्ण जीवन को बनाए रखने या यूं कहें कि झूँठी शान को बनाए रखने के लिए इस तरह के कार्य का चुनाव करते हैं। शहरी और ऊँचे घरानों में इस विलासिता को पूरा करने के लिए एस्कॉर्ट सर्विस या मसाज पार्लर आदि की सर्विस के साथ किया जाता है।

हर तरह के समाज में चोरी छिपे इस तरह की सैक्स प्रेक्टिस होती हैं। उनके रूप अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन है जरूर! अपने आप को सभ्य और शालिन कहने वाला समाज (सफ़ेदपॉश कॉलर) भी इस पेशे में अपनी सेवाएं दे रहा है। आसान और अधिक धन कमाने वाला यह पेशा, सफ़ेदपॉश कॉलर वाले सभ्य समाज की हकीकत को भी बयाँ करता है। कोविड के वक्त ने बहुत से लोगों को अर्श से फर्श पर ला के खड़ा कर दिया, जिसमें बहुत से फिल्मी सितारे भी शामिल थे। 2021 में हैदराबाद से आयी ख़बरों में बहुत-सी अभिनेत्रियों के नाम सामने आए यह कोई पहली घटना नहीं थी जब किसी अभिनेत्री का नाम एस्कॉर्ट सर्विस से जुड़ा हुआ हो। अखबारों को खंगालेंगे तो ऐसी बहुत-सी खबरें आए दिन छपती रहती है। लेकिन बड़ी खबर तब बनती है जब इसमें किसी चर्चित अभिनेत्री या अभिनेता का नाम शामिल होता है।      

कुछ लोग मजबूरीवस इस व्यवसाय से जुड़े हुये है, जिनके पास रोजगार के कोई समुचित साधन नहीं है या फिर उन्होंने इसे नियति मान लिया है। भारत में ऐसे बहुत से समुदाय हैं, जो अपने जीवन की प्रेक्टिस में इसे बहुत ही सहज और व्यावहारिक मानते हैं। उत्तर भारत में बेड़िया, बछड़ा, बंजारा, नट आदि तमाम समुदाय के लोग इस पेशे में शामिल हैं। इन समुदायों में अधिकतर महिलाएँ गायन और नृत्य जैसे पेशे के साथ जुड़ी होने के साथ समाज में यौनिक जरूरतों को भी पूरा कर रही है। इन समुदायों का इस पेशे में आना भौगोलिक बदलाव के साथ सामाजिक परिवर्तन भी बहुत बड़ा कारक है। घुमंतू समुदायों का सेक्स वर्कर के तौर पर काम करने के पीछे हमारे सभ्य समाज और नीति निर्माताओं की देन भी है। जहाँ ऐसे समुदायों को उनके जल, जंगलों, ज़मीनों और उनके जीवन जीने के तरीके को बदलने की कोशिश ने भी उन्हें इस पेशे की ओर आकर्षित या मजबूरी बस शामिल किया है।

देश में बहुत-सी ऐसी जगहें हैं, जिन्हें रेड लाइट एरिया के नाम से जाना जाता है। दिल्ली का जी बी रोड, पश्चिम बंगाल का सोनागाछी, नागपुर का गंगा जमुना इतवारी या फिर बड़े-बड़े महानगरों के कोठे आदि शामिल हैं। इन जगहों को लेकर आम लोगों में कई तरह की फैनटसी होती है, जगहों का नाम सुनते ही लोगों के दिलों दिमाग में सीरहन दौड़ जाती है। लेकिन यह जगह उन लोगों के लिए क्या बिल्कुल वैसी ही है जैसी आम लोगों के दिलो दिमाग में बनी हुई है, लेकिन उनके लिए यह जीवन कैसा होगा। छोटी-छोटी कोठरियों में अपना जीवन व्यतीत करने वाली ये महिलाएँ कैसे अपना जीवन यापन करती हैं। इस पेशे में शामिल हर एक महिला अपनी एक कहानी है जिसमें प्रेम हिंसा और दुत्कार शामिल है।

सामाजिक तौर पर देखें तो यह हमारी नीतियों का नतीजा है कि लोग इस तरह के पेशे को अपना रहे हैं क्योंकि लोगों के लिए समुचित रोजगार के साधन नहीं है। वैसे मेरा नजरिया देखा जाए तो मैं इसे गलत नहीं मानता। लेकिन वह भी परिपक्व उम्र में बिना किसी मजबूरी के अपनी स्वेच्छा से अगर कोई यह पेशा चुनता है तो फिर मैं इसे बहुत नैतिक-अनैतिक बहस के दायरे में नहीं देखता। यह उनकी मर्जी है। क्योंकि हमारा समाज एक बीमार समाज है, यह बात मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूँ क्योंकि देशभर की दिवारें सेक्स दवाओं और हकीमों के विज्ञापनों से पटी हुई हैं। यह विज्ञापन ऐसे ही नहीं किए गए हैं, इसके पीछे एक बड़ा बाजार और बीमार लोग शामिल हैं। क्योंकि हमारा समाज कभी भी सेक्स को सहज बहस का मुद्दा मानता ही नहीं, जैसे ही यौनिक ज्ञान और उससे जुड़े सवाल समाज करता है तो उसे नैतिकता के मूल्यों से दबाया जाता है।

आज 2 जून अंतरराष्ट्रीय सेक्स वर्कर्स डे के तौर पर मनाया जा रहा है। यह दिन यौनकर्मियों के लिए समान अधिकारों की मांग के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। वह दिन जिसे अंतर्राष्ट्रीय वेश्या दिवस के रूप में भी जाना जाता है, एक उत्सव का दिन है, जो वेश्याओं के भेदभाव और उनके शोषक जीवन और काम करने की स्थितियों को याद करता है। यह स्मरण दिवस 1976 से 2 जून को प्रतिवर्ष मनाया जाता है। 2 जून 1976 में 100 से अधिक यौनकर्मी अपने काम के अपराधीकरण के विरोध में ल्यों के सेंट-निज़ियर चर्च (फ्रांस) में एकत्रित हुये  और अपने अधिकारों और शोषण के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की जिसके बहुत सारे सार्थक नतीजे आए। इस कार्य को व्यवसाय के तौर पर देखा जाने और उसमें संलग्नकर्मियों के स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं की ओर सत्तासीनों का ध्यान आकर्षित हुआ। आज का दिन दुनिया में इंटरनेशनल सेक्स वर्कर्स डे के रूप में मनाया जाता है। यह यौनकर्मियों के लिए एक साथ आने और अपने अनुभवों को साझा करने और अपने अधिकारों की वकालत करने का एक महत्वपूर्ण दिन है। सामाजिक न्याय, हिंसा को रोकना, दुनियाभर में यौनकर्मियों के स्वास्थ्य और सुरक्षा की रक्षा करना, यौनकर्मियों के साथ नियमित रूप से होने वाले भेदभाव, शोषण और गरीबी आदि को कम करना और दुनिया के यौनकर्मियों के लिए हक अधिकार की माँग करना।

भारत में यौनकर्मियों के साथ शोषण के बहुत से तरीके मौजूद हैं एक तरफ महिलाओं को देवी बनाकर मंदिरों में देवदासी के तौर पर शोषण शामिल है, तो दूसरी तरफ हमारी सामाजिक संरचना जो आज भी महिलाओं को दोयमदर्जे का ही मानती है। यदि महिलाएँ यौनकर्म के तौर पर कार्यशील हैं, तो उन्हे दोयम दर्जे की माना जाता हैं। लेकिन यही सभ्य और उच्च समाज अपनी दैहिक प्यास बुझाने के लिए उनके पास जाता है। बावजूद इसके पुलिस प्रशासन के द्वारा लगातार शोषित किया जाता रहा है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सेक्स वर्कर्स को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। जिसमें सेक्स वर्क को भारत में एक पेशे के तौर पर शामिल किया गया है। कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस बलों को सेक्स वर्कर्स और उनके बच्चों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करने और मौखिक या शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार नहीं करने का निर्देश दिया है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना की पीठ ने कई निर्देश जारी करते हुए कहा कि इस देश में सभी व्यक्तियों को जो संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हैं, उसे उन अधिकारियों द्वारा ध्यान में रखा जाए जो अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 के तहत कर्तव्य निभाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत अधिक राहत देने वाला और अहम फैसला है। लेकिन इस पर गर्व महसूस करने के बजाए शर्म भी महसूस की जानी चाहिए क्योंकि सत्ता अपनी जिम्मेदारी से भागना चाहती है इसलिए यौनकर्मियों की प्रेक्टिस को वैध करार कर उन्हें व्यवसाय के तौर पर शामिल करते हुये अब इनसे भी कर वसूला जाएगा जो घटती जीडीपी को बढाने में सहायक साबित होगा। शोषण से मुक्ति की कामना के बजाय शोषित को शोषण में गौरव महसूस कराना शासक वर्ग के लिए सर्वोत्तम उपाय है। मुक्ति की बात वह सोचेगा जो इसे निजी संपत्ति आधारित पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था व अन्याय जनित गुलामी मानेगा।







       
नरेश गौतम
Nareshgautam0071@gmail.com

Wednesday 1 June 2022

भारत में श्वेत क्रांति का जनक, जिसने खुद कभी दूध नहीं पिया

डॉ वर्गीज कुरियन जो खुद कभी दूध नहीं पीता था लेकिन भारत में श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है।  आज उन्हें इसलिए याद किया जा रहा है क्योंकि आज विश्व दुग्ध दिवस (World Milk Day) मनाया जा रहा है। भारत की सामाजिक संरचना में Racist व्यवहार बहुत ही गहराई तक शामिल है। वह मनुष्यों के साथ-साथ जानवरों पर भी उतना ही लागू होता है इसीलिए भारत में कभी भी भैंस को वरीयता नहीं दी गई बल्कि गायों को वरीयता मिलती रही क्योंकि वह सुंदर और सफ़ेद होती है। जबकि भैंस, गायों की तुलना में अधिक दुग्ध उत्पादन करती हैं। उत्पादन के साथ-साथ भैंसों के दूध में वसा की मात्रा भी अधिक पाई जाती है। भारत में राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक तौर पर गाय शुद्धता का प्रतीक मानी जाती है।  इसलिए लिए भैंस को बहुत अधिक वरीयता नहीं दी जाती, नस्लीय भेद किया जाता है लेकिन युवाल नोह हरारी ( द होमोसेपियन) के अनुसार देखें तो आज न मनुष्य के जीन्स में शुद्धता पाई जाती है और ना ही जानवरों के फिर भी भारत में देशीनस्ल और विदेशीनस्ल पर बहस लगातार जारी रहती है जो खत्म होने का नाम नहीं लेती। तार्किकता के तौर पर इस बात की स्वतः पुष्टि करें तो यह बात अपने आप में    स्पष्ट दिखाई देती है कि वर्तमान समय में नस्लों में किसी तरह की शुद्धता को मापना मूर्खता ही होगी। खैर हम बात कर रहे थे विश्व दुग्ध दिवस की, भारत में सन 1970 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड द्वारा शुरू की गई योजना भारत को दूध उत्पादन का सबसे बड़ा उत्पादक बना दिया और यहीं से शुरू होती है श्वेत क्रांति!

डॉ वर्गीज कुरियन ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर कैरा जिला सहकारी दूध उत्पादक संघ जो कि भारत में अमूल के नाम से प्रसिद्ध है से जुड़ गए और देखते ही देखते इस संस्था को इन्होंने देश का सबसे सफल संस्थान के तौर पर स्थापित कर दिया। अमूल की कामयाबी को देखते हुए तत्काल प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया और डॉक्टर कुरियन वर्गीय के अमूल्य योगदान को देखते हुए उन्हें बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। अध्यक्ष नियुक्त होने के बाद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि बिना धन के इस संस्थान को कैसे चलाया जाए। तत्काल प्रधानमंत्री से मशवरे पर वर्ल्ड बैंक से लोन लेने की योजना पर कार्य शुरू हुआ लेकिन वर्ल्ड बैंक के भारत दौरे के दौरान वह इस योजना से बहुत अधिक प्रभावित नहीं हुए लेकिन कुछ दिनों बाद वर्ल्ड बैंक में कर्ज की मंजूरी दे दी। कुरियन ने यह कर्ज लेते हुये कहा कि आप मुझे धन दीजिए और उसके बारे में भूल जाइए!


और यहां से शुरू होता है ऑपरेशन फ्लड जिसके तहत बहुत सारे निर्णय लिए गए जैसे दुग्ध से बहुत सारे उत्पाद बनाना, जिनमें सूखे और अधिक दिनों तक उपयोगी बनाए रखने वाले उत्पाद शामिल थे।  दूध को इक्कठा करने उन्हें प्रोसेस करने आदि के लिए समुचित और जगह-जगह सयंत्र लगाए गए। दूध उत्पादन से जुड़े लोगों को ट्रेंड किया गया और एक जगह से दूसरी जगह चेन सप्लाई की व्यवस्था की गई। लेकिन इस ऑपरेशन के तहत सबसे बड़े और जरूरी काम जो हुए वह थे मवेशियों के स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करना, टीके लगाना और क्रॉसब्रीड के लिए विदेशों से सीमन (sperm) मंगाना, अधिक दूध देने वाली नस्लों को भारत में मंगाना। जिसमें जर्सी आदि गाय शामिल हैं लेकिन जर्सी के मुकाबले देश की देसी भैंसों और गायों को भौगोलिक स्थिति के अनुकूल उनकी नस्लों में सुधार कर उत्पादन को और अधिक बढ़ाना शामिल था।


राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों को दूध के मामले में अधिक उत्पाद के तौर पर तैयार कर देना यह सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर शामिल है इसीलिए भारत में डॉ वर्गीज कुरियन को श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है। 1976 में श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित फिल्म 'मंथन' जो कि 'अमूल' के संघर्ष की पूरी कहानी को दिखाया गया है। यह डॉक्यूमेंट्री (फीचरफिल्म) भारत में दुग्ध क्रांति के इतिहास और संघर्ष को उजागर करती है। आज विश्व दुग्ध दिवस को मनाया जाता है भारत में दूध के क्षेत्र में क्रांति लाने वाले डॉ. वर्गीज़ कुरियन को इस लिए याद किया जाना जरूरी हो जाता है।...   






    

Naresh Gautam 
nareshgautam0071@gmail.com