Tuesday 19 June 2018

महाराष्ट्र: रेलवे को मजदूरों से काम नहीं रहा तो उजाड़ी जा रही उनकी बस्तियाँ

केंद्र-राज्य की सरकारों ने इस वक्त सफाई की मुहिम छेड़ रखी है। उसी मुहिम के तहत शहरों को भी साफ किया जा रहा। यह सफाई कूड़े-कचरे के ढेर मात्र की कम, बल्कि इंसानों की ज्यादा चल रही है। ऐसे इंसान जो झुग्गी-झोपड़ियों अथवा कहीं भी सड़क के किनारे गुजर-बसर करते हैं। जो गरीब हैं, जिनके पास घर नहीं है। काम नहीं है, मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपना और बाल-बच्चों का पेट पालते हैं। दिल्ली हो या मुंबई कहीं भी ऐसी झोपड़ियाँ आसानी से देखी जा सकती हैं। सवाल उठता है कि ये लोग आखिर कौन हैं? कहाँ से आते हैं? यह सवाल किसी भी व्यक्ति के दिमाग में आ सकता है।
संवेदनशील ढंग से अगर आप सोचेंगे तो शायद पता भी चल जाए कि ये वही लोग हैं, जो बाकी समाज के लिए घर की सफाई से लेकर सब्जी पहुँचाने तक के सभी काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर स्वीपर से लेकर वॉचमैन तक कोई भी हो सकता है। जिन्हें आज इंसानों की गंदगी ठहराया जा रहा है, जो शहरों में उगी है उसके लिए जिम्मेदार हमारी सरकारें ही है। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले ये लोग बे जमीन व बेरोजगारी के कारण पलायन करते हैं। लोगों के पास रोजगार नहीं होगा, उनके पास ज़मीनें नहीं होंगी तो वे मजबूरन रोजी-रोटी की तलाश में कहीं भी जायेंगे, कुछ भी करेंगे और कहीं भी रहने को मजबूर होंगे। गाँवों में सबके लिए काम तो बचा नहीं, शहर कहीं न कहीं कुछ तो काम दे ही देता है। हाल ही में रिलीज हुई 'काला' फिल्म में इसी मुद्दे को बहुत संजीदा तरीके से उठाने की कोशिश की गई है। पर हर बस्ती, झुग्गी में काला जैसा हीरो नहीं होता।

ऐसा ही महाराष्ट्र के भुसावल में हो रहा है। भुसावल की पहचान एक तो केले के उत्पादन से होती है, दूसरा रेलवे से। भुसावल का रेलवे यार्ड एशिया में सबसे बड़ा माना जाता है। भुसावल के आधे से अधिक लोग इसी यार्ड में काम करते हैं। आज जिनमें आधे से अधिक लोग ठेके पर मजदूरी करते हैं और यही मजदूर अपनी-अपनी झुग्गी-झोपड़ी बना कर वहाँ रहते आए हैं। अब यार्ड में निर्माण के बहुत सारे काम बंद कर दिए गए हैं। जो काम चल रहे हैं, वह भी ठेके पर प्राइवेट कंपनियां करा रही है। अब रेलवे को इन मजदूरों की जरूरत नहीं रह गई है। उन्हीं मजदूरों की ये तमाम बस्तियां यहाँ से बेरहमी से उजाड़ी जा रही है। इन परिवारों की तीन-चार पीढ़ियाँ यहां पर रहती आई हैं। अमानवीयता का आलम तो यह है कि पहले इनकी बिजली काटी, फिर पानी तक बंद कर दिया। और अब सारी नालियाँ और सिवर लाइनें तक बंद कर दी गई हैं। रेलवे अपनी तमाम कॉलोनियों को तोड़कर वहाँ नया निर्माण करना चाहती है। वहाँ बसे लगभग हजारों परिवार अब बेघर होने की कगार पर हैं।

अलिशान बी, उम्र 45 वर्ष,
हमें बताती हैं कि हमारे अब्बा पहले यहाँ रहने आए। हम लोग यहीं पैदा हुए और अब बूढ़े भी हो गए। अब्बा तो बहुत पहले ही गुजर गए थे। बड़ा परिवार था, इसलिए अब्बा हमलोगों के लिए एक छत तक न बनवा पाये। हम सबका पेट भरने में ही उनकी कमाई खतम हो जाती थी। मैं अपनी बूढ़ी माँ के साथ यहां रहती हूँ। गरीबी के कारण मेरी पढ़ाई भी नहीं हो पाई। कहीं काम भी नहीं मिलता। फुटपाथ पर कुछ समान वगैरह बेचकर अपना काम चलाती हूँ। कभी चप्पल, तो कभी बच्चों के खिलौने आदि बेच कर अपना और अपनी बूढ़ी बीमार मां का पेट भरती हूँ। अपना दर्द बताते हुए वे कहती हैं, शरीर पर सफ़ेद दाग होने की वजह से मेरी शादी नहीं हो पाई। इतने सालों से यहाँ रह रहे हैं बमुश्किल सर ढकने को एक छत बना पाई हूँ। अब उसे भी रेलवे के लोग तोड़ देंगे। अब हम कहाँ जाएं अपनी बूढ़ी माँ को लेकर! हम तो कहते हैं कि रेलवे हमारे लिए कहीं जमीन दे, अगर वो भी नहीं दे सकती तो कहीं से हमें लोन दिलवाए। या वो खुद पैसा दे ताकि हमलोग कहीं एक चारपाई भर की जमीन लेकर अपना आशियाना बसा सकें।

शकुंतला बस्ते, उम्र 60 वर्ष।
शकुंतला अपने घर में अकेली महिला है। शरीर जर्जर हो चुका है। न बच्चे हैं, न पति, पति बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कहीं चले गए। घर जैसा घर तो नहीं, बस सिर छुपाने को जमीन मात्र है। इनकी भी तीन पीढ़ियाँ यहीं गुजरी हैं। कोई काम नहीं है। घरों में बर्तन धोकर अपना गुजारा करती हैं। जमा पूंजी के नाम पर बस यही एक टूटी- फूटी झोपड़ी मात्र है। वह अपने बुढ़ापे के आखिरी दिनों में कहाँ जाए? वह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताती है कि 70 के आसपास यहाँ आए थे और यहीं के रह गए। जब तके हाथ- पाँव में दम था, मजदूरी करके अपना पेट पाला। अब बुढ़ापे में यह विपदा आन पड़ी। कहाँ जायेंगे? क्या करेंगे? जब तक हमलोगों की यहाँ रेलवे वालों को जरूरत थी तब तक तो कुछ नहीं कहा, लेकिन आज वह अपनी जमीन खाली कराना चाहता है।

शांता बाई, उम्र 80 वर्ष।
मनमाड से यहाँ आई थी। बताती हैं कि वहाँ पर हमारे पास जमीन नहीं थी, खेत भी नहीं थे। मजदूरी करने यहाँ आए। कुछ काम हम लोगों को यहाँ मिल जाता था। बच्चे बड़े हो गए, शादियाँ कर अलग हो गए। मैं अकेली जान बची हूँ। सरकारी महकमे के लोग हर दूसरे-तीसरे दिन यहाँ आकर घर खाली करने को कहते हैं। पानी-बिजली सब काट दिया। नालियाँ तक जाम कर दी गई हमारी। भगवान भी मुझे उठा नहीं लेता! जाने किस बात का बदला ले रहा है। अब यहीं पड़ोसी हमारे सब कुछ हैं। अलिशान बी हमेशा मेरी मदद करती आई है। यहाँ से कहाँ जाएं? कौन देखेगा मुझे? मोहल्ले के बच्चों के साथ अपना दिन काट लेती हूँ। यहाँ से जाने की बात सोच कर ही दिल घबरा जाता है। जाने क्या होगा? यहाँ के आमदार, खासदार सबसे हमलोग मिले, लेकिन ये सब भी वोट लेने के वक्त ही दिखाई देते हैं। अब यहाँ कोई दिखाई नहीं देता। न ही हमारे मसले पर कोई खड़ा होता दिखाई दे रहा है।
शेख फिरोज, उषा बाई, हालिम सिकंदर, देवीदास भगवान दास नागा, हिरन्ना येरल्लो, ओंकार शंकर वांगर, लता बाई गोपालराव जादव, खैरुन निशा, सुनीता, विद्या आदि हजारों की संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके पास जीने-रहने का इसके सिवा कोई जरिया नहीं है। जमीन नहीं, ठीक से रोजगार नहीं। बस यही एक ठिकाना है जो अब उजड़ने वाला है। भुसावल के ऐसे ही लगभग 5000 हजार परिवार उजड़ने वाले हैं, जिसमें चाँदमारी चाल, हद्दीवाली चाल, आगवली चाल, लिंपूस क़ल्ब, चालीस बांग्ला चाल।। इन सारी चालों में परिवारों की संख्या लगभग 5000 के ऊपर होगी।




NARESH GAUTAM & SANDESH UMALE


स्मृतियों में हिन्दी विश्वविद्यालय...

हम किसी भी जगह को याद करते हुये अपने मस्तिस्क में चित्र खींचते हैं। और यह चित्र तब और अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं जब आपने अपने जीवन का सबसे कीमती समय वहाँ गुजारा हो जैसे कुछ दिनों पहले त...क हिंदी विश्वविद्यालय का नाम लेते ही पुराने वाले काफ्का कैफेटेरिया का एक चित्र खींच जाता था। क्योंकि हम लोगों का सबसे अधिक समय वहीं बिता। गप्प से लेकर बड़े-बड़े डिसकोर्स वहीं बैठ के जाने।  आप सभी अपनी स्मृतियों में हिन्दी विश्वविद्यालय की किन जगहों को महत्व देते हैं और हिन्दी विश्वविद्यालय को याद करते ही आप के दिमाग में कौन सी जगहों के चित्र खींच जाते हैं...  जरूर बताएँ हम कोशिश करेंगे, उन्हें आप तक पहुँचाया जा सके।
























 








Monday 18 June 2018

महाराष्ट्र: दलितों को पीटना और वीडियों बनाकर वायरल करना, हमारी सामाजिक नीचता प्रमाण है


मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही पिछले दो-तीन सालों में एक नया वहसी किस्म का ट्रेंड सामने आया है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक एवं गरीब तबके के लोगों के साथ बर्बर हिंसा करते हुए अपना वीडियो बनाकर उसे पब्लिक डोमेन में जारी करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। सतही तौर पर तो यह प्रवृत्ति पुलिस- प्रशासन और कानून को मुंह चिढ़ाने वाली प्रतीत होती है। किन्तु गहराई में जाकर देखने पर जाहिर होता है कि ऐसा कृत्य करने वाले एक तरह से आश्वस्त हो गए हैं, कि हमारी ही तो सरकार है, जो उनको प्राप्त राजनीतिक संरक्षण की तरफ इशारा करता है। समाज में इन तबकों के खिलाफ कायदे से इतनी नफरत फैलाई गई है, जिसकी अभिव्यक्ति इसी घृणित रूप में हो सकती है। 
खेत का वो कुआँ जहाँ बच्चे नहाने गए थे।  
महाराष्ट्र के जलगांव जिले के जामनेर तालुके के वाकडी गांव में पिछले 10 जून 2018 को मानवता को शर्मसार करने वाला एक ऐसा ही वाकया सामने आया है। इस घटना को अंजाम देने वालों का दुःसाहस देखिये कि उन्होंने घटना का वीडियो बनाकर उसे पब्लिक में जारी किया गया। गांव के काश्तकार ईश्वर जोशी के खेत स्थित कुएं में नहाने गए तीन बच्चों, जिनकी उम्र क्रमशः 10 वर्ष, 13 वर्ष तथा 15 वर्ष के बीच है। उन्हें कुएं में नहाते देख कर पहले तो उन्हें बेरहमी से खदेड़ा गया और फिर प्रह्लाद लोहार के कहने पर उन्हें पकड़ कर नंगा किया गया। फिर उनके साथ बेरहमी पूर्वक मारपीट किया गया और इसका वीडियो बनाकर उसे पब्लिक में वायरल किया गया। वह तीनों बच्चे मातंग जाति (अनुसूचित जाति में आने वाली और ढोल बजाने का पेशा करने वाली जाति है) के हैं। और बच्चों के पिता उन्हीं लोगों के खेतों में मजदूरी का काम करते हैं। बच्चों को मारते समय उन्हें धमकाया भी गया। गांव के ही एक आदमी ने अपना नाम न जाहिर करने के बाद बताया कि उन बच्चों को कई बार समझाया गया था कि खेती की फसल शुरू हो गई है, खेत में मत आया करो।

इस पूरे मामले में पीड़ित पक्ष को सुनते हुए तो यही लगता है कि मामला एक सोची-समझी रणनीति के साथ किया गया। बच्चों को नंगा करने के साथ ही उन्हें यह कहा गया कि पत्ते लो और लपेटो। वीडियो में बच्चे अपने गुप्तांगों को पत्ते से छुपाते हुए और मार खाते हुए दिखाई दे रहे हैं। 
उन्हें मारने के साथ ही धमकी भी दी जा रही है कि गांव में घूमने ले चलूं क्या नंगे। इस मामले में बना वीडियो और वाइरल करने हेतु इसे यूट्यूब तक पर अपलोड किया गया। अब यह एक राजनीतिक मसला बनता दिखाई दे रहा है। रामदास आठवले ने आज उस गांव का दौरा किया। 17 जून को प्रकाश अंबेडकर अलावा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के आने के समाचार मिल रहे हैं इनके अलवा और भी कई नेता इस मामले को अपने-अपने पक्ष में लेने की कोशिश कर रहे हैं। 
यह मामला तब सबके सामने आया जब एक बच्चे के पिता के पास वह वीडियो पहुंचा। पिता ने इसे संज्ञान में लेते हुए इसकी शिकायत दर्ज कराई। 

जिसमें ईश्वर जोशी और प्रह्लाद लोहार के ऊपर धारा-324, 504, 506, 34, 11(2) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। मामले की जांच डीएसपी केशव राव पातोड़े कर रहे हैं। दोषियों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर जेल तो भेजा जा चुका है और मामले की जांच किये जाने की बात कही जा रही है। किन्तु इस मामले का सबसे चिंताजनक पहलू तो यह है कि इस किस्म की बर्बरता करने वालों के हौसले इतने बुलन्द कैसे होते जा रहे हैं! इस किस्म की प्रवृत्ति देश-समाज के लिए अत्यंत ही खतरनाक है।
नरेश गौतम के साथ Sandesh Umale

कहानी बदलाव की...



नाम है उत्तम सिंह चित्तौडिया 
पैदा होने के साथ ही पिता के खानदानी व्यवसाय में सहयोग करते-करते वह खुद कब उस व्यवसाय से जुड़ गए उन्हें पता ही नहीं चला। काफी उम्र तक "खानदानी दवाखाने" का काम किया। कई शहर कई प्रदेश में घूमने और अपने व्यवसाय को चलाने के दौरान ही एक दिन वह अपने एक रिश्तेदार के यहाँ गए। जहाँ एक घटना घटी। हुआ कुछ यूँ कि पास के किसी गाँव में एक चोरी हुई जिसमें चोरों ने एक महिला का कत्ल कर दिया। पुलिस ने सबसे पहले डेरा डाले उन लोगों को पकड़ा जो घुमंतू थे। सारे डेरे वाले दहशत में थे बल्कि मैं भी दहशत में आ गया कि कहीं उसके घर वाले हम लोगों को ही न कह दे। क्योंकि लोगों कि बहुत पहले से मानसिकता बनी हुई है कि घुमंतू समुदाय के लोग चोरी करते हैं कत्ल करने तक में जरा सा नहीं हिचकते। आज भी हमारे समाज को इसी नजर से देखा जाता है। सरकार के लोगों द्वारा भी हमेशा हम लोगों को नकारा ही गया है। बस वही घटना थी जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। हमें तो ठीक से यह भी नहीं पता होता कि हम पैदा कहाँ हुये थे। यही सब बातें रही जिन्होंने मुझे अपने समाज अपने परिवार को बैठाने (स्थाई करने)के लिए प्रोत्साहित किया। आज मेरे समाज के 200 से अधिक परिवार स्थायी अपने घरों में रह रहे हैं। अब अपने बच्चों को पढ़ने से लेकर अन्य कामों के लिए भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। 

वर्धा मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर आर्वी में यह प्रयोग संभव हुआ है। उत्तम सिंह बताते हैं कि 30 साल पहले मैं यहाँ खुद रहने आया। और आज 200 से अधिक परिवारों को रोजगार के साथ स्थायी घर देने का प्रयास कर चुका हूँ । मेरे कड़े परिश्रम और मेहनत का ही नतीजा था कि आज हमारे समाज के बच्चे अपने पुश्तैनी काम को छोड़ कर मुख्य धारा के समाज में आ रहे हैं। अब वह वकालत, इंजीनियरिंग और डॉक्टरी जैसे पेशे में अपनी सहभागिता कर रहे हैं। जिसे हमारे समाज ने कभी सोचा भी नहीं था। 
उत्तम नगर अर्वी, वर्धा
nareshgautam
nareshgautam0071@gmail.com
Photo-Chaitali S G

कहानी मेलघाट की...


आदिवासी समाज की कभी ऐसी प्रवृत्ति नहीं रही की वह संग्रह करे और न ही उसने कभी अपनी निजी संपप्ति बनाने की ही परवाह की। अगर यह प्रवृत्ति उनकी होती तो आज सबसे अधिक संपत्ति और संसाधनों के मालिक वे होते। महाराष्ट्र के अमरावती जिला स्थित मेलघाट के आदिवासियों के करीब 36 गाँव को सरकार विस्थापित कर रही है। विस्थापन का कारण बताया जा रहा है जंगल का विकास। अगर वाकई में जंगलों का नुकसान ये आदिवासी कर रहे होते तो क्या आज जंगल बचे होते? यह सवाल किसी को भी सोचने पर मजबूर कर सकता है। जंगलों पर बहुत पहले से ही सरकार का कब्जा रहा है। सैकड़ों की संख्या में जंगलों की नीतियाँ बनाई गई जो लगातार उन आदिवासियों के लिए काल ही साबित हुई हैं। अगर वास्तव में सरकार जंगलों का विकास चाहती तो जंगल अब तक काफी समृद्ध होते। आज रंग-बिरंगी सरकारें हजारों एकड़ जमीन कार्पोरेट घरानों के हवाले कर रही है। कॉरपोरेट घरानों की रहबरी करने वाला वर्ल्ड बैंक जंगलों को बचाना चाहती है। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि वहाँ से आदिवासियों को निकाल कर जंगलों का विकास नहीं होगा। बल्कि यह विकास वहीं के लोगों के साथ मिलकर होगा तभी सबसे ज्यादा कारगर हो सकता है। 
सरकार हजारों आदिवासी परिवारों को तबाह करके कैसा विकास चाहती है! जिन इलाकों में जंगलों से आदिवासियों को उजड़ा गया है वहां के आँकड़े देखे जा सकते हैं कि वाकई वहाँ विकास हुआ है या विनाश! शायद जिस तरह के विकास को देखने की हमारी आदत बनती जा रही है मुमकिन है वह विकास आया भी होगा। जैसे पर्यटन के नाम पर जंगलों के बीच आरामगाह का निर्माण करना। होटल, शॉपिंग सेंटर का निर्माण करना ताकि शहरी लोग वहाँ आकार अपना मनोरंजन कर सकें और उसके एवज में राजस्व की कुछ रकम सरकार के खाते में जा सके। क्योंकि आदिवासियों से कोई राजस्व सरकार को नहीं जाता। बल्कि उन्हें सुविधाएँ अलग देनी पड़ती हैं। 
अगर आदिवासी जंगलों में रहेंगे तो वहाँ वन विभाग अपनी मनमाने ढंग से जमीन बेचने और जंगलों के संसाधन पर अपना पूर्ण अधिकार हासिल नहीं कर सकती। यही वजह है कि आदिवासियों को जंगलों से किसी भी किमत पर बाहर निकाला जाए ताकि कोई भी उनके इस कथित विकास में आड़े न आ सके। जाहिर है सरकार की प्राथमिकता में जंगल न होकर कुछ और ही है। मेलघाट के तमाम ऐसे गाँव हैं जहाँ के हजारों लोगों ने आज भी जमीन के अपने मालिकाना हक हासिल नहीं किए। क्योंकि उन्हें इसकी कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। जल, जंगल, जमीन को व्यवसाय के रूप में देखने की उनकी संस्कृति ही नहीं रही है। उन्हें तो वह अपने देवता के रूप में पूजते आए हैं। तभी तो वह आज तक सुरक्षित है। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि आदिवासी जंगलों को नुकसान पहुंचाते हैं तो वह नुकसान क्या है? 

उन्हें घर बनाने के लिए साल भर में शायद एक पेड़ ही काफी होगा। कुछ महुए के फल और पत्तियां बस! बाकी उन्हें कुछ भी बेचने की आजादी नहीं है। जंगल के अंदर कोई भी खरीद और बिक्री बिना वनविभाग के नहीं हो सकती। चलो मान भी लेते हैं कि वह अपने घर, खेती के लिए वहाँ से कुछ-कुछ संसाधन इस्तेमाल भी कर लेते हैं तो क्या वह एक भी पेड़ को संरक्षण देने का काम नहीं करते होंगे? जबकि आदिवासी समुदाय के देवी-देवता वही पेड़-पौधे, जल, नदी पहाड़ रहे हैं। मेलघाट इस वक्त पानी की कमी से जूझ रहा है। तो क्या सारा पानी वे आदिवासी ही पी जाते हैं? यह सवाल सरकार और उनके नुमाईंदों को सोचना चाहिए? सारी छोटी- बड़ी नदियों पर डैम क्या आदिवासियों ने बनाए हैं? और उनका पानी रोककर वे क्या करते हैं? शायद पी जाते होंगे या बेच देते होंगे? बेचने की प्रवत्ति अगर उनके अंदर होती तो आज निसर्ग के नाम पर जो भी हमारे पास बचा है, शायद वह भी न बचा होता? मेलघाट से उजाड़े जा रहे आदिवासियों की पीड़ा और मौजूदा विकास के अंतर्विरोध को गहराई में जाकर समझने की जरूरत है.
naresh gautam
nareshgautam0071@gmail.com

#दर्द_विस्थापन_का..


कहानी मेलघाट की... 
एक तरफ सतपुड़ा के घने जंगल और दूसरी तरफ अमरावती से लेकर खंडवा तक के जंगलों के मेल से ही शायद इसका नाम मेलघाट पड़ा होगा। जो कुछ भी हो यह क्षेत्र बहुत सी घाटियों से घिरा हुआ है और अत्यंत ही मनमोहक दिखाई देता है। इन्हीं पहाड़ियों के बीच लाखों की संख्या में बसे हैं कोरकू और गोंड आदिवासी जिन्हें आज जंगलों से निकाल फेकने की मुहिम सत्ता और उसके प्रशासन ने तेज कर रखी है। आदिवासियों को उजाड़ने की इस प्रक्रिया का नाम दिया गया है विस्थापन। 
विस्थापन एक ऐसा दर्द है जिसे बयाँ करना काफी कठिन है। जहाँ एक ओर तमाम लोग अपने पैतृक चीजों को बचाने के लिए लाखों- करोड़ों रुपए भी देने को तैयार रहते हैं वहाँ इन आदिवासियों को मात्र 10 लाख रुपया मुअवजा देकर अपनी पैतृक जमीन, अपना जंगल सब कुछ छोड़ने पर बाध्य किया जा रहा है। आम लोगों को यह 10 लाख रुपए की राशि बहुत अधिक दिखाई दे सकती है। लेकिन वास्तविक जीवन में यह राशि क्या वाकई बहुत ज्यादा हो सकती है! जहाँ से आप की जड़ें ही काटी जा रही हों! उन आदिवासियों की जड़ों की कीमत मात्र 10 लाख रुपए! जिन्हें यह रुपए अधिक दिखाई देते हैं, उनसे एक सवाल है कि आपकी जड़ों को यदि काट दिया जाए क्या आप पैसे के बल पर अपनी जड़ों को मजबूत करने में कामयाब हो सकते हैं? शायद जवाब यही होगा की नहीं। फिर भी नागरिक समाज को आदिवासियों के लिए निर्धारित यह राशि बहुत अधिक दिखाई देती है। ऐसे में यह कैसे सोचा जा सकता है कि मात्र इतनी मामूली सी रकम जो शायद कुछ महीनों का खर्च ही चला पाये मात्र से उनका पुनर्वास मुमकिन होगा। चलो मान भी लेते हैं कि आदिवासी परिवारों के लिए यह एक बड़ी राशि हो सकती है वह अपना घर दुबारा बसा लेंगे। लेकिन क्या वह अपने देवताओं और उन पेड़-पौधों को साथ में ले कर जा सकते हैं? या सरकार जो उनकी हितैषी बनने का ढोंग कर रही है, वह उनके साथ उन पेड़-पौधों, नदियों-नालों, पहाड़ों और मैदानों को साथ ले जा सकती है। अगर वह उन सबको साथ में विस्थापित करती है तो यह विस्थापन उन आदिवासियों को जरूर मंजूर होना चाहिए। पर ऐसा कतई नहीं होगा। मेलघाट में विस्थापन का यह खेल 1974 से शुरू हो गया था जो आज तक निरंतर बना हुआ है। 1980 के खत्म होते ही जंगल और आदिवासी के आपसी रिश्तों पर होने वाला असर साफ-साफ दिखने लगा। एक-एक करके उन्हें जंगली चीजों के इस्तेमाल से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया। उन्हें भी लगने लगा जंगल हमारा नहीं, पराया है। इस परायेपन के अहसास के बीच उन पर जंगल खाली करने का दबाव डाला गया।`

मेलघाट टाइगर रिजर्व´ से सबसे पहले तीन गांव कोहा, कुण्ड और बोरी के 1200 घरों को विस्थापित होना पड़ा था। पुनर्वास के तौर पर उन्हें यहां से करीब 120 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के ही अकोला जिले के अकोठ तहसील भेज दिया गया था। उन्हें जो जमीन मिली वह इस काबिल भी नहीं थी कि उनके जानवर तक वहाँ चर सकें। यही हाल अब भी है, सरकार उन्हें मात्र एक राशि देकर 16 गाँवों को अभी तक खाली करा चुकी है। जबकि अभी तक मात्र एक लाख रुपए का भी भुगतान उन्हें किया गया है। बाकी रकम कब उनके हाथ आएगी और कैसे यह उन्हें मिलेगा यह तो छोड़िए आला अधिकारियों तक को इसके बारे में नहीं पता है। 2006 के सर्वे का नोटिस उनपर लागू किया जा रहा है जबकि अब हजारों परिवारों में तमाम बच्चे जवान हो चुके हैं और अपनी अलग गृहस्थी बसा चुके हैं। जिन गाँवों की जनसंख्या 200 परिवार हुआ करती थी आज वह बढ़ कर 250 के आसपास पहुंच चुकी है। उन बढ़े हुए लोगों का क्या होगा? सैकड़ों ऐसे परिवार हैं जिनके पास आज भी जमीन का मालिकाना हक नहीं है। क्योंकि उन्हें कभी इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। 19 और गाँवों को खाली कराने की मुहिम तेजी से चल रही है। जिन गाँवों को अभी तक जंगल के बाहर का रास्ता दिखाया गया, सरकार ने उनके लिए कोई भी जमीन सुनिश्चित नहीं की और न ही खेती। 10 लाख रुपए का मुआवजा क्या उनके जल, जंगल, और जमीन की भरपाई कर सकता है ?....

Naresh gautam
nareshgautam0071@gmail.com