Saturday 21 October 2017

आखिर कैसे लुप्त हुए चरवाहे!

जिन लोगों ने अपना जीवन ग्रामीण क्षेत्रों में बिताया है, उन्हें बखूबी मालूम होगा कि चरवाहे क्या होते हैं। और अपनी माटी से लगाव रखने वाले, ग्रामीण जीवन से रिश्ता रखने वाले उन तमाम लोगों ने अपनी जिंदगी में कभी न कभी अपने मवेशियों को चारागाह में जरूर चराया ही होगा। हमारे लिए तो यह घर के तमाम बंधनों से मुक्त होकर खुले मैदान में खेलने का सुनहरा मौका भी हुआ करता था। तमाम तरह के वैसे खेल, जिसकी आज के समय में स्मृतियों से भी नाम तक मिटते जा रहे हैं, वो सब खेल हमने चारागाहों में ही तो खेलने सीखे थे। गाँव से कस्बों तक जाने के शार्टकट रास्तों की खोज भी उसी की देन थी। अपने मवेशियों के साथ ही नदी-तालाबों में तैरना भी हमने सीखा था। यहीं से हमने तमाम पौधे-पत्तियों के उपयोग और उनकी खूबियों के बारे में ज्ञान हासिल करना शुरु किया। वाकई में चरवाहा होना अपने आपमें एक कला है। यह कला है प्रकृति के साथ जुड़ने की, उसे करीब से जानने की। पशुओं से भी मनुष्य ने बहुत कुछ सीखा था। तभी तो दुनिया के ज्यादातर बड़े-बड़े दार्शनिक व महापुरुष भी पहले चरवाहे ही हुए थे। वह चाहे ईसा मसीह हों या फिर पैगंबर मोहम्मद।


उल्लेखनीय है कि पूर्व में चरवाहे अपने पशुओं को लेकर दूर-सुदूर जगहों पर जाते थे। इस क्रम में वे चरवाही के साथ-साथ कई दूसरे महत्वपूर्ण कार्य भी सम्पन्न करते थे। एक जगह से दूसरी जगह ज्ञान के आवागमन के साथ-साथ तमाम तरह के पेड़-पौधे और उनके बीजों के आदान-प्रदान का भी ये महत्वपूर्ण जरिया थे। वे एक तरह के औषधि विक्रेता भी हुआ करते थे। उन्हें मौसम की गहरी समझ से लेकर नदियों, मैदानों, पहाड़ों, रेगिस्तानों और पठारों की भी काफी समझ हुआ करती थी। सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी वे अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।
चरवाहे जानवरों की भाषा से लेकर विभिन्न भाषा- शैलियों और बोलियों में पारंगत होते थे। मौसम के बदलते मिजाज के मुताबिक वह पशुओं की जरूरतों की पूर्ति के लिए एक जगह से दूसरी जगह अपने मवेशियों के साथ जाया करते थे। वहीं उनकी दुनिया सज जाती थी।
चरवाहों की अपनी अलग-अलग टोलियाँ होती थी। जिसमें कुछ बकरियाँ व भेंड़ चराने वाले होते तो कुछ ऊँट, गाय तथा भैंस चराने वाले भी होते थे। पूर्व में वह लगभग देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रमण करते हुए कहीं भी देखे जा सकते थे। कृषि के विकास में उनका बड़ा योगदान रहा है। बदलते वक्त के साथ इसमें भी काफी बदलाव आया। विकास की परिभाषा बदली और उसका पैमाना भी बदल गया। बावजूद इसके आज भी कुछ लोग यह काम करते हुए दिखाई दे सकते हैं, भले ही उनकी संख्या अब काफी कम रह गई है।

एक समय में न तो मवेशियों की कमी थी और न ही चारागाहों की और न ही उनके लिए कोई क्षेत्र विशेष की ही सीमाएँ हुआ करती थी, वह अपने पशुओं को लेकर कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र थे। घर-परिवार से दूर माल-मवेशी लेकर वे महीनों गुजार देते। चांद के नीचे चूल्हा जलाते और घास के बिस्तर पर रात गुजारते अपने उन्हीं मवेशियों के साथ।


लेकिन औपनिवेशिक काल में उनके लिए मुश्किलें बढ़नी शुरू हो गई। उसका एक कारण यह भी था कि उस वक्त तक अंग्रेजों ने अपनी पकड़ देश के लगभग सभी भागों में बना ली थी। और उन्हें यह घूमंतु लोग कभी समझ नहीं आए। उसका एक कारण यह भी रहा है कि वह उनकी परिधि से बाहर थे। क्योंकि उनका कोई स्थायी घर न होने की वजह से उनकी पहचान करना मुश्किल हो जाता था। इसलिए अंग्रेजों के द्वारा 1871 में क्रिमिनल ट्राईब्स एक्ट पारित किया गया। इस कानून के तहत तमाम ऐसे लोगों, जिनका पेशा घूम-घूम कर अपना व्यवसाय करना था, जिसमें दस्तकार, व्यवसायी और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को अपराधी की श्रेणी में गिना गया। उन्हें जन्मजात अपराधी तक कहा गया। इस दौर में अंग्रेजों ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए हर मुमकिन रास्ता अपनाया था। उन्होंने जल, जंगल, जमीन, नदियों के पानी से लेकर नमक तक पर, चरवाहों के चारागाहों और जानवरों पर भी टैक्स लगा दिए। यहाँ तक की 1850 से 1880 के बीच टैक्स वसूली का काम बाक़ायदा ठेकेदारों को बोली लगाकर दिया जाने लगा था। उसके बाद से लगातार उनकी मुश्किलें बढ़ती ही चली गई। कई सारे नए कानून बने, जिनमें मुख्य रूप से परती भूमि नियमावली आई। इस कानून के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत खाली ज़मीनों पर से भी टैक्स वसूलना चाहती थी। 
वन अधिनियम ने तो न केवल चरवाहे को बल्कि देश के तमाम आदिवासी गाँवों तक को नष्ट करने का रास्ता साफ कर दिया।
अपराधी जनजाति अधिनियम ने सभी घुमंतू समुदायों को अपराधी घोषित कर दिया था। जिसका नतीजा यह हुआ कि जब भी अंग्रेजी हुकूमत के कारिंदों का मन करता किसी को भी जेल में ठूँस देते और उन पर बर्बर अत्याचार किए जाते।
चराई टैक्स और सीमाओं की पाबंदी ने चरवाहों के समुदाय को लगभग ख़त्म कर दिया। टैक्स इतने अधिक लगाए जाने लगे जो वह देने में असमर्थ हो गए।

छत्तीसगढ़ के गुदगुदा ग्राम से
खैर यह तो अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हुआ। मुल्क की आजादी के बाद भी इन चरवाहों के लिए कोई ठोस साकारात्मक कदम नहीं उठाया गया। सच पूछिए तो इन चरवाहों की किसी को सुधि लेने की फुर्सत ही नहीं रही। गांवों में जो भी बचे-खुचे सार्वजनिक चारागाह थे, उनपर दबंगों-माफियाओं ने धीरे-धीरे कब्जा जमा लिया। आज बिन चारागाह के चरवाहे जब-तब छिट-फुट दिख जाते हैं। इस बीच पशुओं की देशी नस्लें, जिनमें हर मौसम से मुकाबला करने का अदम्य साहस हुआ करता था, तेजी से नष्ट होने के कगार पर हैं। अब पशु गरीबों के तारणहार होने के बजाय फार्म हाउस वाले धन्ना सेठों की तिजोरी भरने का जरिया मात्र बन कर रह गए हैं। इन्हें न तो पशुओं से कोई ममत्व है और न ही विशेष लगाव ही। पशु इनके लिए मुद्रा कमाने का जरिया मात्र हैं। इसलिए पशुओं को खतरनाक इंजेक्शन देकर ज्यादा दूध निकालने से भी इन्हें कोई परहेज नहीं है। पर चरवाहों के लिए पशु उनका एक तरह का संगी-साथी और परिवार का सदस्य भी हुआ करता था। पशु के हर सुख-दुख में वे समान भागीदार थे।

सारी तस्वीरें छत्तीसगढ़ के गुदगुदा ग्राम से... 

©Naresh Gautam   Dr. Mukesh Kumar

Friday 20 October 2017

पीड़ा का महासमंदर है इनकी जिंदगी...

आज हम आधुनिकता -उत्तर आधुनिकता अथवा कोई अन्य चाहे जिस कालखंड में जी रहे हों, एक चीज बिलकुल भी नहीं बदली है। वह है माँ-बाप की अपनी संतानों के प्रति ममता, प्यार और दुलार। आज भी दुनिया में ज़्यादातर माँ-बाप के लिए अपनी औलाद से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं है। खासकर एक माँ के लिए तो उसकी औलाद चाहे जैसा भी हो- अपाहिज हो या अपंग हो, जैसा भी हो, वह उसकी आँखों का तारा ही होता है। तमाम कष्ट झेलते हुए भी हमेशा वह उसे अपने पास, अपनी आँचल की छाँह में ही रखना चाहती है। कभी उसके प्रेम में ईर्ष्या नहीं आती, पर क्या औलादें भी अपने माँ-बाप के लिए यही सब कुछ कर पाती हैं? आइये, हम आपको महाराष्ट्र के वर्धा स्थित एक कुष्ठ रोग आश्रम मे रह रहे ऐसे ही कुछ बेबस-लाचार, घर-परिवार व समाज से दुत्कार दिये गए लोगों से मिलाते हैं।


इससे पहले इस आश्रम का कुछ सामान्य परिचय जान लेना ठीक रहेगा। जैसा कि हम आपको पूर्व में ही बता चुके हैं कि यह आश्रम महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित है। कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा के लिए बनाया गया यह भारत का पहला चिकित्सा केंद्र है। वर्धा के दत्तपुर में स्थित इस आश्रम को आज मनोहर धाम नाम से जाना जाता है। मनोहरलाल दीवान नामक एक स्थानीय व्यक्ति ने इसकी स्थापना गांधी-विनोबा की प्रेरणा से आजादी के एक दशक पूर्व 1936 में की थी। कहा जाता है कि एक दिन वर्धा में घूमते हुए मनोहरलाल दीवान ने एक कुष्ठ रोगी को नाले का पानी पीते हुए देखा। इससे वे काफी आहत हुए और उन्होंने विनोबा जी से इस घटना का उल्लेख किया। इस पर विनोबा जी ने उनसे कहा कि स्थिति तो चिंताजनक है, किन्तु इन रोगियों के लिए करेगा कौन? विनोबा के इस प्रश्न ने मनोहरलाल के मन में दृढ़ संकल्प पैदा कर दिया, जिसके बाद इस आश्रम की स्थापना हुई। हालांकि इससे पूर्व गांधी जी सेवाग्राम आश्रम में परचुरे शास्त्री नामक कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति को रखकर खुद ही उनकी सेवा-सुश्रुषा शुरू कर दी थी। गांधीजी के इस कार्य ने भी मनोहरलाल को काफी प्रेरणा दी थी। उस वक्त कुष्ठ रोगियों की हालत अत्यंत ही दयनीय थी, पहले तो इस रोग को छुपाया जाता और जब यह बढ़ जाता तो रोगी को परिवार-समाज से अपनी मौत मरने के लिए बाहर निकाल दिया जाता था।

  
आज छब्बू ताई की उम्र 62 वर्ष के आसपास है। वह खानदेश (महाराष्ट्र) की रहने वाली है। 15 साल की उम्र में उसका विवाह हो गया। और 20 साल की होने तक उनके 2 बच्चे भी हो गए। दूसरे बच्चे के समय ही वह बीमार पड़ी, प्राथमिक उपचार के दरम्यान उसे डाक्टर ने बीमारी के बारे में बताया। उसमें कुष्ठ रोग के लक्षण पाए गए थे। उस वक्त सभी जगहों पर इस बीमारी का इलाज नहीं हुआ करता था। उसके ऊपर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। किसी ने उनके पति को महाराष्ट्र के वर्धा स्थित कुष्ठ रोग के ईलाज के लिए बने आश्रम के बारे में बताया। पति ने उपचार के लिए उन्हें आश्रम पहुंचा दिया। उसी उम्र में वह यहाँ इलाज के लिए आ गई। आज यहाँ रहते हुए उन्हें लगभग 42 वर्ष बीत चुके हैं। ईलाज के कुछ ही दिन बाद वह पूरी तरह से ठीक हो गई थी, किन्तु इस बीमारी को लेकर समाज में व्याप्त भ्रांतियों की वजह से उसकी घर वापसी नहीं हो पाई। उनके दो बेटे, दोनों आज अच्छी जगहों पर हैं। थोड़ा सोचकर वह अपने परिवार के बारे मे बताती है कि एक बेटा बैंक में और छोटा बेटा जहाज उड़ाता है। पति अब इस दुनिया में नहीं रहे, दो वर्ष पूर्व ही उनकी मौत हो गई। वह आगे बताती है कि बेटे यहाँ नहीं आते हैं, मैं ही चली जाती हूँ। बेटे आएँगे तो वह अकेले आएँगे, मैं जाती हूँ तो सबसे मिल लेती हूँ। पर अपने घर में ज्यादा दिन नहीं रुकती। आज भी उन्हें डर है कि कहीं यह बीमारी उनके नाती-नतकुरों को न हो जाए। अपने घर की बात करते समय उनके चेहरे के हाव-भाव काफी आसानी से पढ़े जा सकते हैं। चरम अवसाद के चार दशक गुजार चुकने के बाद भी छब्बू ताई को किसी से कोई शिकायत नहीं है। आश्रम ही आज उसका सबकुछ है। पहले वह चरखा चलाती थी, किन्तु अब आश्रम में चरखा बंद हो चुका है। आश्रम के दूसरे कामों में हाथ बँटाती है।

इन चार दशकों ने उसे काफी कुछ सिखा दिया है। अब उन्हें अपना घर अच्छा नहीं लगता। पर बच्चों के लिए उनका आज भी वही प्रेम दिखाई देता है। यहाँ रहते हुए उन्होंने खादी का काम करना सिख लिया है। कुछ-कुछ काम वह खेती-बाड़ी का भी करती हैं। ऐसी ही कहानी यहाँ आने वाले उन सैकड़ों लोगों (मरीजों) की है जो कुष्ट रोग से पीड़ित थे अथवा आज भी हैं। आज यह आश्रम (मनोहर धाम) इन सैकड़ों लोगों का घर-परिवार और अस्पताल के साथ उनकी दुनिया भी है। 

हमारी मुलाक़ात रामकृष्ण वाघाड़े से हुई। 71 वर्ष के रामकृष्ण से मिलने वाला हर व्यक्ति, उससे बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकता है। नॉन स्टॉप बोलते जाने वाले इस व्यक्ति के पास आश्रम की इतनी खट्टी-मीठी यादें हैं कि आपके पास सुनने का वक्त कम पड़ जाएगा।
उनके चेहरे पर आज भी वही उत्साह दिखाई देता है, जो कभी जवानी के दिनों मे हुआ करता था। हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी भाषाओं के साथ कई क्षेत्रीय बोलियों पर अपनी पकड़ रखने वाले रामकृष्ण ने 40 वर्षों तक कुष्ठ निवारण साहित्य का प्रचार किया, कई बार इसी सिलसिले में विदेश यात्राएं भी की। आज वह अपनी पत्नी के साथ इसी आश्रम में रहते हैं। पास के गाँव बोरधरन में ही उनका अपना घर था। आज भी कभी-कभी वह घर जाते हैं। घर की बात करते ही उनके चेहरे पर उभर आने वाली दर्द की लकीरों को पढ़ा जा सकता है। उनके बच्चे भी उन्हें अब घर में नहीं रखना चाहते।
रामकृष्ण का एक पैर नहीं है, अल्सर हो जाने की वजह से कैंसर के खतरे से बचने के लिए उन्हें अपना पैर कटाना पड़ा। और दूसरा पैर कुष्ठ रोग से कभी पीड़ित हुआ करता था। पत्नी को भी हाथों में कभी यह बीमारी हुआ करती थी।
रामकृष्ण की कहानी अन्य लोगों से इसलिए अलग हो जाती है क्योंकि उन्होंने यह जानते हुए भी (शांताबाई) से विवाह किया कि उन्हें यह रोग है। शांताबाई भी आश्रम में ही रहती है। एक बेटा है जो आज अपनी खुशहाल जिंदगी जी रहा है। पर आज भी उन्हें यह डर बना हुआ है कि कहीं उनके बच्चों को यह बीमारी हमारी वजह से न हो जाए। शांताबाई अपने घर-परिवार की तस्वीरें दिखाते हुए अपने बचपन के दिनों के साथ ही बच्चों की तस्वीरें देखते हुए जैसे कहीं खो सी जाती है। घर और बच्चों की यादों की टीस अनायास उसके चेहरे पर दिखाई देने लगते हैं। लेकिन वह अपने को यहाँ रहते हुए ज्यादा खुश दिखाने की कोशिश करती है। यह भी उनका एक परिवार है। जहाँ उनके मित्र, यार, सखी सहेली सभी हैं। संस्था के साथ बहुत पहले से काम करते आए हैं इसलिए लोग उनका सम्मान भी करते हैं। एक तरह से दोनों पति-पत्नी इस कुष्ठ रोग पर काम करने वाली इस संस्था का अलिखित जिंदा इतिहास ही हैं।
दिनकर बामनराव पाटिल
रामकृष्ण ने ही हमारी मुलाक़ात आश्रम में रह रहे वयोवृद्ध दिनकर बामनराव पाटिल से कराई। उनकी उम्र 84 वर्ष के करीब है। यह व्यक्ति संस्था का जीता-जागता इनसाइक्लोपीडिया है। दिनकर जलगाँव के रहने वाले हैं। बड़ा भरा-पूरा परिवार है। पहले परिवार के साथ ही वह रहते थे। इसी आश्रम के अस्पताल में वे पहले नॉन मेडिकल असिसटेंट के पद पर कार्यरत थे। 1995 में सेवा आश्रम से सेवानिवृत हुए। संस्था में अपने दिनों के कार्यकाल को याद करते हुए कहते हैं। 
मनोहरलाल दीवान

यह अस्पताल भारत का पहला अस्पताल था। जहाँ कुष्ठ रोगियों का इलाज किया जाता था। कभी यहाँ 24 घंटे डॉक्टर्स की टीम हुआ करती थी। देश के बड़े-बड़े डॉक्टर अपनी सेवाएं यहाँ दिया करते थे। वे दुख व्यक्त करते हुए कहते हैं कि लेकिन आज यह संस्था जर्जर अवस्था में है। कभी इन्दिरा गांधी से लेकर बड़े-बड़े नेता यहाँ विजिट किया करते थे। उस वक्त मरीजों की संख्या भी यहाँ काफी थी, लगभग 1300 के आस-पास मरीज हुआ करते थे। एक तरह से मरीजों का घटना यह भी दर्शाता है कि अब यह रोग पहले से कम होता जा रहा है। पर ऐसा नहीं है। आज भी तमाम केस देखने को मिलते हैं। पर यहाँ भी तमाम तरह की खामियां व्याप्त हो चुकी हैं। आश्रम में अब वह पहले जैसी बात नहीं रही। अब यहाँ सिर्फ 105 मरीज ही रह गए हैं। यही वो संस्था है, जहाँ से प्रेरित होकर बाबा आमटे ने अपनी संस्था आनंदवन (चंद्रपुर) में स्थापित की थी। यहाँ बाबा आमटे ने विधिवत ट्रेनिंग भी ली थी। वह अपने दिनों को याद करते हुए अवसाद से भर उठते हैं। डायबिटीज़ की बीमारी की वजह से आज उनकी यादास्त उतनी दुरुस्त नहीं रह गई है। एक सड़क दुर्घटना में उनके पैर में काफी चोट आ गई थी। शुगर के मरीज होने के कारण उनका ईलाज ठीक से नहीं हो पाया। जिसके चलते हालत बहुत खराब हो गई। तब उन्हें यहाँ लाया गया। आज वह थोड़ा-बहुत चल-फिर सकते हैं। संस्था आने वाले दिनों में उनके कार्यों को लेकर एक किताब भी लिखना चाहती है। पर घर-परिवार के लोग अब उन्हें अपने घर नहीं ले जाते। वह यहाँ पर नॉन मेडिकल असिस्टेंट हुआ करते थे। इसकी ट्रेनिंग उन्होंने चेन्नई के एक बड़ी ऑर्गेनाइजेशन से ली थी। वह बताते हैं कि किसी जमाने में यहाँ (मनोहर धाम आश्रम) का ऑपरेशन थियेटर देश के तमाम अस्पतालों से समृद्ध था। लेकिन आज वह भी मेरे बूढ़े शरीर की तरह ही जर्जर हो चुका है। अब न लोगों में सेवा की वह भावना बची है। और न ही सरकार में। देश में सफाई और स्वच्छता के बारे मे वह कहते हैं कि आज सरकार उसके प्रचार को लेकर बड़े-बड़े विज्ञापन कर रही है, कभी हमने इसके प्रयोग गाँव-गाँव जाकर खुद किए हैं।

आज वह खुद अपनी बीमारी के साथ कुष्ठ रोग से लड़ रहे हैं। लेकिन आज भी उनके अंदर वही जोश और आँखों में चमक को देखा जा सकता है। शायद आज भी वह ठीक से चलने-फिरने के लायक होते तो वह बाकी रोगियों की सेवा के लिए कार्य कर रहे होते।
आज भी लोग इस बीमारी से डरते हैं। यह कोई लाईलाज बीमारी नहीं है। इसका ईलाज आज पूर्ण रूप से संभव है। बहुत से लोग आश्रम देखने आते हैं। आने-जाने वाले तमाम मरीजों से बात करते हैं। पर उन्हें भी डर रहता है कि कहीं उन्हें भी यह रोग न हो जाए। इस बीमारी को लेकर आम लोगों की धारणा में भी कोई गुणात्मक बदलाव नहीं हो पाया है। आज भी लोग इसे पूर्व जन्म के पाप-पुण्य से जोड़कर देखते हैं, जो अत्यंत ही अवैज्ञानिक धारणा है। 
कुष्ठ रोग से खराब हुए पैर
हमें इस बीमारी को दूसरी अन्य बीमारी की तरह ही देखना चाहिए और इसके पीड़ितों को घर-परिवार-समाज से बेदखल करने के बजाय उसका समुचित ईलाज कराया जाना चाहिए। यह कोई संक्रामक बीमारी भी नहीं है। अगर आपके आस-पास इस रोग से पीड़ित कोई मरीज हो तो, उससे दूरी बनाने के बजाय उसको स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचाने में मदद करें। कुष्ठ रोग छुपाने वाली बीमारी नहीं है। आज इसका सम्पूर्ण ईलाज मुमकिन है। अज्ञानता के चलते लोग इसे प्राइमरी स्टेज में छुपाने की कोशिश करते हुए रोग को बढ़ाते ही हैं। इस गलत धारणा को बदल डालने की जरूरत है। आइये कुष्ठ रोगियों के प्रति समाज की भ्रांत धारणा को जड़-मूल से मिटाएँ!                                                     
कुष्ठ रोग से पीड़ित इसी समाज का अंग हैं और उन्हें परिवार-समाज के तिरष्कार के स्थान पर प्रेम और चिकित्सा की ज्यादा जरूरत है।

वार्ड में खाना खाते हुऐ बुजुर्ग

वार्ता के दौरान डॉ मुकेश कुमार और दिनकर बामनराव पाटिल 

रोगियों के वार्ड में भोजन ले जाते हुए


©Naresh gautam
nareshgautam0071@gmail.com




Wednesday 18 October 2017

सोचिए अगर दुनियाँ में फूल नहीं होते तो यह दुनियाँ कैसी होती ?

कान्हा से कोर तक

कान्हा भारत के प्रमुख राष्ट्रीय उद्यानों में से एक माना जाता है। और एशिया के सबसे खूबसूरत वन्यजीव रिजर्वो में गिना जाता है।  इसे पर्यटन के हिसाब से 8 भागों में विभाजित किया गया है। जीव-जन्तुओं के लिए संरक्षित यह पार्क 940वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। जहाँ तमाम विलुप्त प्रजातियों के जानवरों का संरक्षण किया जाता है। 1955 में इसे राष्ट्रीय पार्क में शामिल किया गया। इससे पहले यहाँ जानवरों का शिकार करना आम बात हुआ करती थी।  राष्ट्रीय पार्क में शामिल किए जाने पर लगभग 23 गाँव इस क्षेत्र से विस्थापित किए या ये कहें तो ज्यादा बेहतर होगा कि उन्हें उखाड़ फेका गया। जिनके तमाम परिवार आज भी उस दंभ को झेल रहे हैं।      
कहते हैं कान्हा राष्ट्रीय पार्क से ही रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध किताब और धारावाहिक जंगल बुक के किरदारों की प्रेरणा यही से मिली। 
यह राष्ट्रीय पार्क 945 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। कान्हा को 1933 में अभयारण्य के तौर पर स्थापित कर दिया गया और इसे 1955 में राष्ट्रीय पार्क घोषित किया गया। 
उगते हुये सूरज की रोशनी में इसकी खूबसूरती और चमकदार हो जाती है। यह पूरा क्षेत्र सतपुड़ा की पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इन पहाड़ियों की ऊंचाई 450 से 900 मीटर तक फैली है। इसके अन्तर्गत बंजर और हेलन की घाटियां भी आती हैं जिन्हें पहले मध्य भारत का प्रिन्सेस क्षेत्र कहा जाता था। 1879-1910 ईसवी तक यह क्षेत्र अंग्रजों के शिकार का स्थल हुआ करता था।   
हजारों घरों को तबाह कर इसे पार्क में तब्दील इसलिए किया गया ताकि यहाँ जानवरों को संरक्षित किया जा सके। कोर एरिया में सिर्फ वही लोग आ-जा सकते जो यहाँ  गार्ड और रेंजर नियुक्त हैं। यदि वाकई इसे जानवरों के लिए संरक्षित किया गया होता तो यहाँ रोज सैकड़ों की संख्या में गाड़ियों का आवागमन नहीं होता।   
कोर एरिया में रहते हुये आदिवासी जंगल को नुकसान पहुँचा रहे थे। शेर, बाघों और चीते का शिकार कर रहे थे। वह वहाँ के जानवरों की खालों का व्यापार करते रहे होंगे। उनकी वजह से ही जंगलों में शेर और चीते नहीं रहे। अब जंगलों में रहने वाले इंसानों से अधिक जानवरों को सुरक्षित रखने के लिए योजनायें बनाई जा रही हैं। और यह योजनाएं वह लोग बना रहे हैं जो ना तो ठीक से इंसान को जानते और ना ही जंगल को। यदि वह जंगल और वहाँ रहने वाले लोगों और जानवरों को ठीक से जानते होते तो उन लोगों को वहाँ से निकालने की नौबत ही न आती। जब कि जंगलों को ठीक से जानने वालों का मानना है कि जानवर और इंसान एक दूसरे के पूरक होते हैं।  जानवर भी इंसानों के आस-पास ही रहना पसंद करते हैं। खैर हम तो बात कर थे। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान की (इको सेंटर की) महीने और सालों का हिसाब लगाया जाए तो लाखों की संख्या में लोग उस उद्यान के जानवरों को देखने आते हैं। करोड़ो रुपए का व्यापार वहाँ फैला है। 

हजारों की संख्या में कोर एरिया में गाड़ियों का आना जाना है। सुबह से शाम तक यह काम चलता ही रहता है। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के बीचो-बीच से लगभग 23 गांवों को वहाँ से निकाल कर उसे कोर मे तबदिल कर दिया गया। और कारण यह बताया गया कि आदिवासी जंगलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। जानवरों का शिकार करते हैं। उनकी वजह से शेर और चीते अब जंगलों में नहीं रहे। इसलिए उन इंसानों को जंगलों से निकाल कर उसे जानवरों और पर्यटकों के लायक बनाया गया। अब कोर एरिया में आप को शेर और चीता जैसे जानवर चाय और समोसे खाते हुये दिखाई दे सकते हैं।             
यह बात आप को पढ़ते हुये अजीब लग सकती है। कि क्या वाकई जानवर भी चाय समोसा खाते होंगे। लेकिन वहाँ जाने पर मुझे भी लगा था, पर अब नहीं! कारण स्पष्ट है कि ऐसी जगहों पर टूरिज़म कैसे बढ़ाया जाए। जाहिर सी बात है लोगों को सुविधाएँ दी जाए। वह चाहे जंगल के अंदर हो या फिर बाहर। क्योंकि इससे ही आमदनी बढ़ाई जा सकती है।      
हजारों कि संख्या में लोग वहाँ जानवरों को देखने तीन-तीन शिफ़्टों में जाते हैं। पहली शिफ्ट होती है सुबह 6:30 से 11 बजे तक दूसरी शिफ्ट दोपहर 3 बजे के बाद। और सबसे रोचक रात की शिफ्ट होती है। शाम 7 बजे से रात 10 बजे तक। रात की शिफ्ट अपने आप में जंगल सफारी करने वालों के लिए रोचक ही होगी। शांत जगल में सोते हुये जानवरों को जगाते हुये उनकी आवाज़े सुनना उन्हें परेशान करना। मुझे तो यह बिल्कुल ही समझ नहीं आया कि यहाँ इकोलॉज़ी बची कहाँ? जब पूरे समय वहाँ के जानवर आती-जाती गाड़ियों की आवाजों से डरते रहते होंगे। गाड़ियों की आवाजों से अपने आप को बचाने की कोशिश करते रहते होंगे। खैर मुझे सबसे ज्यादा अचरज की बात तो तब लगी जब मुझे यह पता लगा की कोर एरिया के सेंटर पॉइंट मे एक कैंटीन और शौपिंग के लिए कुछ दुकानें भी हैं।  

वह भी तमाम आधुनिक सुख सुविधाओं सहित। आपको वहाँ चाय समोसा के अलावा कपड़े जूते चप्पल आदि भी मिल जायेंगे। अब जाहिर सी बात है कि जंगल में जानवरों को तो इनकी जरूरत नहीं ही पड़ती होगी। पर कहा भी नहीं जा सकता जमाना बादल रहा है शायद इस बदलाव को जानवरों ने भी मान लिया होगा। लेकिन मुझे वहाँ जानवर तो कम ही दिखाई दिये। पर इंसानों और गाड़ियों की कोई कमी नहीं थी। सैकड़ों की संख्या में गाडियाँ और हजारो की संख्या में इंसान। 
जंगल मे बाघ को हम लोग देखने आते हैं या बाघ हमें देखता है। शायद देखता भी होगा कि इंसान अपने मनोरंजन के लिए किसी को भी बंदर बना सकता है। और मदारी होते हैं जंगल को इकोलोजीकल की परिभाषा मे ढालने वाले लोग। जंगल के अंदर रहने वाले रहवासियों से जानवरों को ख़तरा था। वहाँ रहने वाले आदिवासी जिनकी मद्दद से आज भी जंगल में अधिकारी और सुरक्षागार्ड अपना काम करते आए हैं, और शायद करते भी रहेंगे। पर पढ़े लिखे लोगों का मानना रहा है कि वही लोग जंगलों को नुकसान पहुँचते रहे हैं। वह शिकार करते हैं जानवर को मरते हैं और उन्हें अपना भोजन बना कर खा जाते हैं। पर देखने से तो ऐसा नहीं लगा। 
कभी भी यह सुनने और देखने में भी नहीं आया कि आदिवासियों ने बाघ, चीते या फिर शेर का शिकार किया और अगर वह यह करते होते तो आज क्या बहुत पहले ही उनका अंत हो चुका होता। यह तो वहीं लोग करते आए हैं जो यह जानते हैं कि राष्ट्रीय बाजार में शेर के बाल और खाल की क्या कीमत है? जो लोग अपने पास के साप्ताहिक बाजार में आज भी अनाज के बदले सब्जीयाँ लेते हो। 
ज्यादा से ज्यादा चीजों को उगा कर या जंगलों को बिना नुकसान पहुंचाये प्राप्त करते हों उन्हें शेर और चीते को मार कर क्या मिलता होगा या कभी मिला होगा। यह शायद वह लोग ज्यादा ठीक से बता सकते हैं जो देशी और जंगली चीजों के स्वाद किसी भी कीमत पर पाने के लिए हजारों किलो मीटर का सफर तक तय करते हैं। और उसकी किमतें चुकाते आए हैं यहाँ के रहवासी लोग ...

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मुसाफिर और रास्ते




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Tuesday 17 October 2017

अद्भुत रंगों से भरी दुनियाँ की खूबसूरती





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अंबाड़ी सेहत के लिए उपयोगी...

अंबाड़ी भारत के लगभग सभी हिस्सों में पाया जाता है। अलग-अलग जगहों पर आमरी, गोंगुरासनपेटुवा आदि तमाम नामों से जाना जाता है। इसके फलों और पत्तियों की सब्‍जी  पत्तियो चटनी, शर्बत आदि बनाकर उपयोग में लाया जाता है । इसकी पत्तियांफूल और फल सभी एक खटास लिए होते हैं इसलिए ग्रामीण इलाकों में इसे खट्टी सब्जी (भाजी)भी कहते हैं। इसमें कार्बोहाइड्रेड्सफाइबर्स के अलावा अनेक खनिज लवण भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। पोटेशियम और मैग्नेशियम जैसे सेहत की दृष्टि से महत्वपूर्ण तत्वों के अलावा इसकी पत्तियों में विटामिन्स (एस्कॉर्बिक एसिडनियासिन और पायरीडोक्सिन) भी पाए जाते हैं। इसकी सब्जी एंटीमाइक्रोबियल होने के साथ-साथएंटी कैंसर और एंटी ऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर होती है। ग्रामीण इलाकों में तो इसकी पत्तियों और फलों को लोग अक्सर कच्चा चबाकर भी खूब आनंद लेते हैं।

किसानों के लिए यह दूसरे कई मायानों मे भी अपनी उपयोगिता रखता, परम्परागत कृषि कार्य में रस्सी का उपयोग महत्वपूर्ण होता है। जिसके लिए इसका उपयोग किया जाता है साथ ही यह चारे के रूम मे उपयोग किया आता है इसकी लकड़ी जलावन के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। इसके डंठल से निकले रेशे का उपयोग रस्सी, बान बनाने से लेकर कागज आदि से लेकर तमाम चीजों के बनाने मे उपयोग किया जाता है। घरेलू सजावट की भी तमाम वस्तुओं में इसका उपयोग किया जाता है।  








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