Thursday 2 June 2022

मजबूरी या विलासिता का पर्याय है सेक्सवर्क

दुनिया के हर देश में सेक्स वर्क करने वाले लोग मिल जायेंगे। कुछ देशों में इसे संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है और कुछ देशों में इसे धर्म के संरक्षण में किया जाता है। कुछ लोग इसमें मजबूरीवस भी शामिल होते हैं तो कुछ लोग स्वेच्छा से भी! भारतीय सामाजिक संरचना की जिस तरह से बनावट है वहाँ साधारण लोगों को स्वेच्छा से इस पेशे में शामिल होना मुश्किल ही दिखाई देता है। लेकिन बदलते परिवेश में जिस तरह से लोगों की जीवन शैली में बदलाव आया है। उसमें यह भी शक नहीं है कि लोग अपनी विलासता और धन के अधिक लालच में, विलासिता पूर्ण जीवन को बनाए रखने या यूं कहें कि झूँठी शान को बनाए रखने के लिए इस तरह के कार्य का चुनाव करते हैं। शहरी और ऊँचे घरानों में इस विलासिता को पूरा करने के लिए एस्कॉर्ट सर्विस या मसाज पार्लर आदि की सर्विस के साथ किया जाता है।

हर तरह के समाज में चोरी छिपे इस तरह की सैक्स प्रेक्टिस होती हैं। उनके रूप अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन है जरूर! अपने आप को सभ्य और शालिन कहने वाला समाज (सफ़ेदपॉश कॉलर) भी इस पेशे में अपनी सेवाएं दे रहा है। आसान और अधिक धन कमाने वाला यह पेशा, सफ़ेदपॉश कॉलर वाले सभ्य समाज की हकीकत को भी बयाँ करता है। कोविड के वक्त ने बहुत से लोगों को अर्श से फर्श पर ला के खड़ा कर दिया, जिसमें बहुत से फिल्मी सितारे भी शामिल थे। 2021 में हैदराबाद से आयी ख़बरों में बहुत-सी अभिनेत्रियों के नाम सामने आए यह कोई पहली घटना नहीं थी जब किसी अभिनेत्री का नाम एस्कॉर्ट सर्विस से जुड़ा हुआ हो। अखबारों को खंगालेंगे तो ऐसी बहुत-सी खबरें आए दिन छपती रहती है। लेकिन बड़ी खबर तब बनती है जब इसमें किसी चर्चित अभिनेत्री या अभिनेता का नाम शामिल होता है।      

कुछ लोग मजबूरीवस इस व्यवसाय से जुड़े हुये है, जिनके पास रोजगार के कोई समुचित साधन नहीं है या फिर उन्होंने इसे नियति मान लिया है। भारत में ऐसे बहुत से समुदाय हैं, जो अपने जीवन की प्रेक्टिस में इसे बहुत ही सहज और व्यावहारिक मानते हैं। उत्तर भारत में बेड़िया, बछड़ा, बंजारा, नट आदि तमाम समुदाय के लोग इस पेशे में शामिल हैं। इन समुदायों में अधिकतर महिलाएँ गायन और नृत्य जैसे पेशे के साथ जुड़ी होने के साथ समाज में यौनिक जरूरतों को भी पूरा कर रही है। इन समुदायों का इस पेशे में आना भौगोलिक बदलाव के साथ सामाजिक परिवर्तन भी बहुत बड़ा कारक है। घुमंतू समुदायों का सेक्स वर्कर के तौर पर काम करने के पीछे हमारे सभ्य समाज और नीति निर्माताओं की देन भी है। जहाँ ऐसे समुदायों को उनके जल, जंगलों, ज़मीनों और उनके जीवन जीने के तरीके को बदलने की कोशिश ने भी उन्हें इस पेशे की ओर आकर्षित या मजबूरी बस शामिल किया है।

देश में बहुत-सी ऐसी जगहें हैं, जिन्हें रेड लाइट एरिया के नाम से जाना जाता है। दिल्ली का जी बी रोड, पश्चिम बंगाल का सोनागाछी, नागपुर का गंगा जमुना इतवारी या फिर बड़े-बड़े महानगरों के कोठे आदि शामिल हैं। इन जगहों को लेकर आम लोगों में कई तरह की फैनटसी होती है, जगहों का नाम सुनते ही लोगों के दिलों दिमाग में सीरहन दौड़ जाती है। लेकिन यह जगह उन लोगों के लिए क्या बिल्कुल वैसी ही है जैसी आम लोगों के दिलो दिमाग में बनी हुई है, लेकिन उनके लिए यह जीवन कैसा होगा। छोटी-छोटी कोठरियों में अपना जीवन व्यतीत करने वाली ये महिलाएँ कैसे अपना जीवन यापन करती हैं। इस पेशे में शामिल हर एक महिला अपनी एक कहानी है जिसमें प्रेम हिंसा और दुत्कार शामिल है।

सामाजिक तौर पर देखें तो यह हमारी नीतियों का नतीजा है कि लोग इस तरह के पेशे को अपना रहे हैं क्योंकि लोगों के लिए समुचित रोजगार के साधन नहीं है। वैसे मेरा नजरिया देखा जाए तो मैं इसे गलत नहीं मानता। लेकिन वह भी परिपक्व उम्र में बिना किसी मजबूरी के अपनी स्वेच्छा से अगर कोई यह पेशा चुनता है तो फिर मैं इसे बहुत नैतिक-अनैतिक बहस के दायरे में नहीं देखता। यह उनकी मर्जी है। क्योंकि हमारा समाज एक बीमार समाज है, यह बात मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूँ क्योंकि देशभर की दिवारें सेक्स दवाओं और हकीमों के विज्ञापनों से पटी हुई हैं। यह विज्ञापन ऐसे ही नहीं किए गए हैं, इसके पीछे एक बड़ा बाजार और बीमार लोग शामिल हैं। क्योंकि हमारा समाज कभी भी सेक्स को सहज बहस का मुद्दा मानता ही नहीं, जैसे ही यौनिक ज्ञान और उससे जुड़े सवाल समाज करता है तो उसे नैतिकता के मूल्यों से दबाया जाता है।

आज 2 जून अंतरराष्ट्रीय सेक्स वर्कर्स डे के तौर पर मनाया जा रहा है। यह दिन यौनकर्मियों के लिए समान अधिकारों की मांग के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। वह दिन जिसे अंतर्राष्ट्रीय वेश्या दिवस के रूप में भी जाना जाता है, एक उत्सव का दिन है, जो वेश्याओं के भेदभाव और उनके शोषक जीवन और काम करने की स्थितियों को याद करता है। यह स्मरण दिवस 1976 से 2 जून को प्रतिवर्ष मनाया जाता है। 2 जून 1976 में 100 से अधिक यौनकर्मी अपने काम के अपराधीकरण के विरोध में ल्यों के सेंट-निज़ियर चर्च (फ्रांस) में एकत्रित हुये  और अपने अधिकारों और शोषण के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की जिसके बहुत सारे सार्थक नतीजे आए। इस कार्य को व्यवसाय के तौर पर देखा जाने और उसमें संलग्नकर्मियों के स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं की ओर सत्तासीनों का ध्यान आकर्षित हुआ। आज का दिन दुनिया में इंटरनेशनल सेक्स वर्कर्स डे के रूप में मनाया जाता है। यह यौनकर्मियों के लिए एक साथ आने और अपने अनुभवों को साझा करने और अपने अधिकारों की वकालत करने का एक महत्वपूर्ण दिन है। सामाजिक न्याय, हिंसा को रोकना, दुनियाभर में यौनकर्मियों के स्वास्थ्य और सुरक्षा की रक्षा करना, यौनकर्मियों के साथ नियमित रूप से होने वाले भेदभाव, शोषण और गरीबी आदि को कम करना और दुनिया के यौनकर्मियों के लिए हक अधिकार की माँग करना।

भारत में यौनकर्मियों के साथ शोषण के बहुत से तरीके मौजूद हैं एक तरफ महिलाओं को देवी बनाकर मंदिरों में देवदासी के तौर पर शोषण शामिल है, तो दूसरी तरफ हमारी सामाजिक संरचना जो आज भी महिलाओं को दोयमदर्जे का ही मानती है। यदि महिलाएँ यौनकर्म के तौर पर कार्यशील हैं, तो उन्हे दोयम दर्जे की माना जाता हैं। लेकिन यही सभ्य और उच्च समाज अपनी दैहिक प्यास बुझाने के लिए उनके पास जाता है। बावजूद इसके पुलिस प्रशासन के द्वारा लगातार शोषित किया जाता रहा है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सेक्स वर्कर्स को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। जिसमें सेक्स वर्क को भारत में एक पेशे के तौर पर शामिल किया गया है। कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस बलों को सेक्स वर्कर्स और उनके बच्चों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करने और मौखिक या शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार नहीं करने का निर्देश दिया है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना की पीठ ने कई निर्देश जारी करते हुए कहा कि इस देश में सभी व्यक्तियों को जो संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हैं, उसे उन अधिकारियों द्वारा ध्यान में रखा जाए जो अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 के तहत कर्तव्य निभाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत अधिक राहत देने वाला और अहम फैसला है। लेकिन इस पर गर्व महसूस करने के बजाए शर्म भी महसूस की जानी चाहिए क्योंकि सत्ता अपनी जिम्मेदारी से भागना चाहती है इसलिए यौनकर्मियों की प्रेक्टिस को वैध करार कर उन्हें व्यवसाय के तौर पर शामिल करते हुये अब इनसे भी कर वसूला जाएगा जो घटती जीडीपी को बढाने में सहायक साबित होगा। शोषण से मुक्ति की कामना के बजाय शोषित को शोषण में गौरव महसूस कराना शासक वर्ग के लिए सर्वोत्तम उपाय है। मुक्ति की बात वह सोचेगा जो इसे निजी संपत्ति आधारित पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था व अन्याय जनित गुलामी मानेगा।







       
नरेश गौतम
Nareshgautam0071@gmail.com

Wednesday 1 June 2022

भारत में श्वेत क्रांति का जनक, जिसने खुद कभी दूध नहीं पिया

डॉ वर्गीज कुरियन जो खुद कभी दूध नहीं पीता था लेकिन भारत में श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है।  आज उन्हें इसलिए याद किया जा रहा है क्योंकि आज विश्व दुग्ध दिवस (World Milk Day) मनाया जा रहा है। भारत की सामाजिक संरचना में Racist व्यवहार बहुत ही गहराई तक शामिल है। वह मनुष्यों के साथ-साथ जानवरों पर भी उतना ही लागू होता है इसीलिए भारत में कभी भी भैंस को वरीयता नहीं दी गई बल्कि गायों को वरीयता मिलती रही क्योंकि वह सुंदर और सफ़ेद होती है। जबकि भैंस, गायों की तुलना में अधिक दुग्ध उत्पादन करती हैं। उत्पादन के साथ-साथ भैंसों के दूध में वसा की मात्रा भी अधिक पाई जाती है। भारत में राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक तौर पर गाय शुद्धता का प्रतीक मानी जाती है।  इसलिए लिए भैंस को बहुत अधिक वरीयता नहीं दी जाती, नस्लीय भेद किया जाता है लेकिन युवाल नोह हरारी ( द होमोसेपियन) के अनुसार देखें तो आज न मनुष्य के जीन्स में शुद्धता पाई जाती है और ना ही जानवरों के फिर भी भारत में देशीनस्ल और विदेशीनस्ल पर बहस लगातार जारी रहती है जो खत्म होने का नाम नहीं लेती। तार्किकता के तौर पर इस बात की स्वतः पुष्टि करें तो यह बात अपने आप में    स्पष्ट दिखाई देती है कि वर्तमान समय में नस्लों में किसी तरह की शुद्धता को मापना मूर्खता ही होगी। खैर हम बात कर रहे थे विश्व दुग्ध दिवस की, भारत में सन 1970 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड द्वारा शुरू की गई योजना भारत को दूध उत्पादन का सबसे बड़ा उत्पादक बना दिया और यहीं से शुरू होती है श्वेत क्रांति!

डॉ वर्गीज कुरियन ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर कैरा जिला सहकारी दूध उत्पादक संघ जो कि भारत में अमूल के नाम से प्रसिद्ध है से जुड़ गए और देखते ही देखते इस संस्था को इन्होंने देश का सबसे सफल संस्थान के तौर पर स्थापित कर दिया। अमूल की कामयाबी को देखते हुए तत्काल प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया और डॉक्टर कुरियन वर्गीय के अमूल्य योगदान को देखते हुए उन्हें बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। अध्यक्ष नियुक्त होने के बाद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि बिना धन के इस संस्थान को कैसे चलाया जाए। तत्काल प्रधानमंत्री से मशवरे पर वर्ल्ड बैंक से लोन लेने की योजना पर कार्य शुरू हुआ लेकिन वर्ल्ड बैंक के भारत दौरे के दौरान वह इस योजना से बहुत अधिक प्रभावित नहीं हुए लेकिन कुछ दिनों बाद वर्ल्ड बैंक में कर्ज की मंजूरी दे दी। कुरियन ने यह कर्ज लेते हुये कहा कि आप मुझे धन दीजिए और उसके बारे में भूल जाइए!


और यहां से शुरू होता है ऑपरेशन फ्लड जिसके तहत बहुत सारे निर्णय लिए गए जैसे दुग्ध से बहुत सारे उत्पाद बनाना, जिनमें सूखे और अधिक दिनों तक उपयोगी बनाए रखने वाले उत्पाद शामिल थे।  दूध को इक्कठा करने उन्हें प्रोसेस करने आदि के लिए समुचित और जगह-जगह सयंत्र लगाए गए। दूध उत्पादन से जुड़े लोगों को ट्रेंड किया गया और एक जगह से दूसरी जगह चेन सप्लाई की व्यवस्था की गई। लेकिन इस ऑपरेशन के तहत सबसे बड़े और जरूरी काम जो हुए वह थे मवेशियों के स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करना, टीके लगाना और क्रॉसब्रीड के लिए विदेशों से सीमन (sperm) मंगाना, अधिक दूध देने वाली नस्लों को भारत में मंगाना। जिसमें जर्सी आदि गाय शामिल हैं लेकिन जर्सी के मुकाबले देश की देसी भैंसों और गायों को भौगोलिक स्थिति के अनुकूल उनकी नस्लों में सुधार कर उत्पादन को और अधिक बढ़ाना शामिल था।


राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों को दूध के मामले में अधिक उत्पाद के तौर पर तैयार कर देना यह सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर शामिल है इसीलिए भारत में डॉ वर्गीज कुरियन को श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है। 1976 में श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित फिल्म 'मंथन' जो कि 'अमूल' के संघर्ष की पूरी कहानी को दिखाया गया है। यह डॉक्यूमेंट्री (फीचरफिल्म) भारत में दुग्ध क्रांति के इतिहास और संघर्ष को उजागर करती है। आज विश्व दुग्ध दिवस को मनाया जाता है भारत में दूध के क्षेत्र में क्रांति लाने वाले डॉ. वर्गीज़ कुरियन को इस लिए याद किया जाना जरूरी हो जाता है।...   






    

Naresh Gautam 
nareshgautam0071@gmail.com

Saturday 30 May 2020

शिक्षा के बदलते तरीके - ऑनलाइन सीखने का अनुभव


आज पूरा विश्व एक ऐसे समय से गुजर रहा है, जिसके खत्म होने की कोई उम्मीद अभी नजर आती दिखाई नहीं दे रही है। विश्वभर में कोरोना माहमारी का संकट छाया हुआ है। सारी व्यवस्थाएं अस्त-व्यस्त हो गयी हैं। हर जगह त्राहि-त्राहि मची हुई है। उन्हीं में एक मसला बच्चों की पढ़ाई का भी बना हुआ है। 21वीं शताब्दी यानी आज के समय में, आज बिना क्लास छोड़े आप अपनी सुविधानुसार कहीं भी, कभी भी ऑनलाइन सीख सकते हैं। यह आपके सीखने की प्रक्रिया को और आसान बनाता है। आप अपना समय बचा सकते हैं और आपको कहीं जाने की भी जरूरत भी नहीं है। घर बैठे-बैठे अनेक तरह की जानकारियां सिर्फ मिनटों में हासिल कर सकते हैं। वर्क फ्रॉम होम कर सकते हैं। शारीरिक रूप से कक्षाओं में भाग लेने के लिए शिक्षार्थी किसी विशेष दिन/समय के अधीन होते हैं। लेकिन ऑनलाइन कक्षाओं में यह जरूरी नहीं। वे अपनी सुविधानुसार शिक्षा सत्रों को कुछ देर के लिए रोक भी सकते हैं। ऑनलाइन कक्षाएं एक सरल और सुगम उपाय हो सकती हैं। बिना किसी परेशानी के कुछ सीखने का किंतु यह सब कुछ आसान सा लगने वाला इतना आसान भी नहीं है। भारत जैसे-तमाम देश इस समय कोरोना के चलते पूर्णतया बन्द हैं। जिससे आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। जिसमें छात्रों की पढ़ाई भी प्रभावित हुई है। छात्रों की पढ़ाई का नुकसान न हो इसलिए ऑनलाइन कक्षाओं का एक विकल्प सामने आया है। किन्तु यह भारत में कितना कारगर साबित होगा यह जानना भी जरूरी है। इन कुछ आँकड़ों पर यदि ध्यान दिया जाये तो हकीकत के बहुत से पहलू सामने दिखाई देते हैं। ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया’ की रिपोर्ट के अनुसार, 80% लोग प्रति माह रु. 10,000 से कम कमाते हैं। यानी, यदि कोई इससे ज्यादा कमाता है तो वह देश के टॉप 20% में आएगा। विश्व बैंक के वर्ल्ड डेवलपमेंट इंडिकेटर्स के अनुसार 76% लोग असुरक्षित रोज़गार में लगे हुए थे। वहीं ग्लोबल फाइनैंशियल इंक्लूजन इंडेक्स 2017 के अनुसार, देश में केवल 17% के पास स्मार्टफोन हैं। अन्य कुछ अध्यानों के अनुसार देश की लगभग एक तिहाई जनसंख्या के पास स्मार्टफोन हैं। यह आँकड़े यदि ठीक मान भी लिए जाये तो और बहुत से पेंज हैं।  

साथियों जब आप इस लेख को पढ़ रहे होंगे तो शायद आप किसी वातानुकूलित कक्ष में अपनी कुर्सी पर बैठे होगे, जहां इंटरनेट उपलब्ध हो और किसी भी तरह की कोई समस्या ना हो। हालाँकि जब मैं यह लिख रहा हूँ तो मुझे कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। मै अभी अपने गांव में हूँ। यहाँ बिजली की भयानक समस्या है। इंटरनेट की सुविधा भी बड़ी मुश्किल से मिल पाती है। गांव में इंटरनेट बमुश्किल चलता है। यहाँ तक की गांव में मोबाइल नेटवर्क की समस्या आज भी वैसे ही कायम है जैसे- कि पिछले कुछ वर्षों पहले थी। यह सिर्फ मेरी समस्या नहीं है। देश के ऐसे तमाम हिस्से हैं जहाँ आज भी मोबाइल में नेटवर्क खोजने के लिए तमाम तरह के जुगाड़ करने पड़ते हैं। वहाँ ऑनलाइन क्लासेस के बारे में मेरे लिए सोचना भी कई बार चाँद पर घर बनाने जैसे ही दिखाई देता हैं।     
मेरे घर में मेरे अलावा और भाई-बहन भी हैं। सभी की ऑनलाइन कक्षाएं विद्यालयों द्वारा चलवायी जा रही हैं। ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया’ के आँकड़ों की देखों तो सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में मुश्किल से एक घर में एक स्मार्ट फोन होगा। यदि घर में चार बच्चे हैं और चारों पढ़ रहे हैं तो सोचिए वह कैसे ऑनलाइन पढ़ाई में अपनी हिस्सेदारी कर सकते हैं? दूसरी गौर करने वाली बात यह भी है कि जिन घरों में लड़कियाँ हैं उनके लिए ऑनलाइन पढ़ाई करना अपने आप एक जटिल प्रक्रिया के तौर पर सामने आ रहा है।  

जैसा कि मैंने बताया की मैं इस वक्त गाँव में हूँ।  यहां घरेलू काम करने के लिए सिर्फ लड़कियों को ही कहा जाता है। खाना बनाना, बर्तन धोना इत्यादि तमाम तरह के काम सिर्फ और सिर्फ लड़कियों से ही कराये जाते हैं। ऑनलाइन कक्षाओं के समय भी उन्हें घर के काम करने होते हैं। उनके लिए इस तरह से पढ़ाई करना कोई विकल्प नजर नहीं आता। घर के कामों में मैं मदद करता हूँ लेकिन यह कोई कारगर तरीका नहीं है। घर के कामों से अगर वह पढ़ाई के लिए समय निकाल भी लेती हैं तो फिर वही समस्याएं उन्हें घेरे खड़ी होती हैं जो मेरे साथ हैं। मैंने अपनी महिला मित्रों से जब ऑनलाइन सीखने के बारे में सवाल किया तो उनमें से कई ने कहा कि- "जब कक्षा शुरू होती है तो मोबाइल लेकर बैठ जाती हूँ। कुछ समय बाद घर का कोई भी काम हुआ तो कक्षा को बीच में ही छोड़ना पड़ता है।" एक महिला मित्र ने बताया कि- "घर बहुत छोटा है। परिवार के सभी सदस्य एक ही कमरे में रहते हैं। इन सब के बीच ऑनलाइन कक्षा हो पाना सम्भव नहीं होता है।"

इसी तरह की तमाम समस्याएं विद्यार्थियों को हो रही हैं। लड़कियों की पढ़ाई के रास्ते में कितनी कितनी बाधाएं हैं, इसका अंदाज़ा आप इन सभी समस्याओं से लगा सकते हैं। कॉलेज आने के लिए बाहर निकलना उनके लिए कितने कामों का प्रबंधन करके निकलना है। घर लौटकर उसी बचे समय में उन्हें घर की सब जिम्मेदारियां पूरी करनी होती हैं, पढ़ाई भी करनी होती है, असाइनमेंट भी बनाना होता है। कितनी लड़कियां दो लेक्चर के बीच गैप में यह काम करती हैं कि घर में समय नहीं मिलेगा। और वैसे भी, कॉलेज के लिए घर से बाहर निकलना साँस लेने जैसा नहीं क्या? और अब जब वे घर में हैं, तो कितने परिवार उनकी ऑनलाइन पढ़ाई को लेकर संजीदा और संवेदनशील हैं? उनकी आर्थिक स्थिति और पारिवारिक परिवेश उन्हें इस तरह की पढ़ाई की कितनी सहूलियत देते हैं? इस तरह के प्रश्न भी सबके मन में इस विकल्प पर संदेह पैदा करते हैं।

इससे अलग एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि दृष्टिबाधित व्यक्ति के लिए ऑनलाइन लर्निंग कितना उपयोगी साबित होता है? पुस्तकें ब्रेल लिपि में उपलब्ध हो सकती हैं। टोकिंग सॉफ्टवेयर भी हैं लेकिन सब के इंटरनेट सबसे अहेम हैं। बावजूद इसके ऑनलाइन सीखना केवल तभी मुमकिन है जब कोई अन्य व्यक्ति उस दृष्टिबाधित व्यक्ति की मदद करे।

हर विद्यार्थी अलग-अलग पृष्ठभूमि से आता है। किसी के पास शिक्षा ग्रहण करने के पर्याप्त साधन मौजूद हैं तो बहुत से विद्यार्थियों के लिए शिक्षा ग्रहण करने हेतु विश्वविद्यालयों में दाखिला लेना भी मुश्किल होता है। ऑनलाइन सीखना एक अच्छा विकल्प हो सकता है लेकिन सिर्फ उन्हीं के लिए जिनके पास पर्याप्त साधन मौजूद हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में अभी यह बात सोचना अपने आप में बड़ी बात होगी। हम क्यों न तकनीक के मामले में कितने ही दावे कर लें लेकिन भारत देश का ग्रामीण अभी इस तरह की व्यवस्था के लिए कतई तैयार नहीं है। भारत के तमाम ऐसे हिस्से हैं जहाँ फोन पर बात करने के लिए गाँव घर की सबसे ऊँची जगह पर जाना पड़ता है। उस स्थिति में भी अगर ठीक से बात हो जाए तो बहुत बड़ी बात होती है। लेकिन हमारी सरकार और पूरे सरकारी तंत्र ने यह मान लिया है कि भारत का हर व्यक्ति और बच्चा तकनीकी तौर पर तैयार है। जबकि हकीकत कुछ और ही कहती है।

आशीष गौतम 

Sunday 17 March 2019

ITOKRI ने दिया सैकड़ों महिलाओं को रोजगार (परिवर्तन की बयार)


ITOKRI (www.itokri.com) ग्वालियर में मौजूद एक ऐसा संस्थान है जो बाजार में हजारों विकल्पों के बाद भी अपनी एक अलग पहचान रखता है। आधुनिकता के साथ संस्कृति और समुदायों के कला संस्कृतियों के संगम जैसा, जहाँ आप को एक ही छत के नीचे वह सब कुछ उपलब्ध हो सकता है जिसका आज के दौर में वजूद मिटता जा रहा है। यहाँ आपको उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक सभी जगह के हस्तशिल्प और हस्तकरघा वस्त्रों की झलक एक साथ मिलती है। लगभग सभी प्रदेशों के परम्परागत परिधान या कला संस्कृति से जुड़े परिधानों का एक बेहतरीन प्लेटफार्म कहा जा सकता है। यह एक बेहतरीन शिल्प मेले का जीवंत ऑनलाइन रूप है। जहाँ देश भर के पारम्परिक कारीगरों की कृतियां देसी एवं अंतरराष्ट्रीय चाहने वालों के लिए सहज रूप से उपलब्ध हैं, ढ़ेर सारे प्यार और नज़ाकत के साथ जैसे इसके नाम से इंगित होता है। आधुनिकता के साथ संस्कृति की एक आधुनिक टोकरी है ITOKRI”... 

ITOKRI किसी भी अन्य संस्थान से कैसे अलग हो जाता है, यह बात अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। दरअसल उसका अलग होना ही उसकी अपनी पहचान को बनाता है। इसकी शुरुआत 2011 में एक छोटे से संस्थान या कहें कि एक वेबसाइट (www.itokri.com) के जरिये नितिन और उनके दोस्तों द्वारा की गई।

इस संस्थान का मूल उद्देश्य पैसा कमाना नहीं हैं यदि पैसा ही कमाना होता तो नितिन के पास पिता का पूरा व्यवसाय था। लेकिन उन्हें तो अपनी ही धुन सवार थी, कि उन्हें अपना कुछ करना है। और ऐसा जहाँ समाज को नई दिशा मिल सके। खास कर महिलाओं को, जिनके पास हुनर तो है लेकिन उसकी पहचान और निखारने का मौका उनके पास नहीं होता। उसी मौके और उनके अंदर के रचनात्मकता को उभारने का काम ITOKRI करता है। ITOKRI आज 100 से अधिक महिलाओं को सीधे रोज़गार से जोड़ चुका है। और परोक्ष रूप से तकरीबन 5000 से अधिक कारीगर परिवारों का रोज़गार आई.टोकरी पर निर्भर है।
ITOKRI के फाउंडर नितिन ने अपनी शिक्षा हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से पूरी की और फिर थियेटर से होते हुए डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण की दुनियाँ भी देखी। साथ ही छात्र राजनीti में भी सक्रिय रहे, फिल्म और डॉक्यूमेंट्री निर्माण में उन्होंने अपने कौशल का लोहा मनवाया। 'ब्लैक पम्फ्लेट्स' और जनकवि विद्रोही पर बनायी गयी फिल्म "मैं तुम्हारा कवि हूँ", कविता और कवि के सम्बन्ध को गहराई से दर्शाती है। इस फिल्म को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर काफी सराहा गया और बहुत से पुरस्कारों से नवाजा भी गया। नितिन को नयी दुनियाँ और वहाँ छुपे कला कौशल को देखने की बैचैनी हस्तशिल्प और हस्तकरघा की दुनिया में खींच लायी। जहाँ दोस्तों की मदद से ITOKRI का सफर शुरू हुआ।

ITOKRI की को-फाउंडर जियाका सफर भी कुछ ऐसा ही रहा, जिया का बैकग्राउंड बायो केमिस्ट्री का रहा है, लेकिन ज्वैलरी बनाना उनका शौक था। उन्होंने इस शौक को कैरियर के तौर पर लिया। और उसे अधिक निखारने के लिए पीपल ट्रीदिल्ली के एक संस्थान से ट्रेनिंग ली। इसके बाद पिछले सात वर्षों से ग्वालियर में ITOKRI के सफर से जुडी हुई हैं। ITOKRI के सारे स्टाफ साथियों की देख-रेख इन्हीं के भरोसे है। चूंकि ITOKRI एक कंपनी कम परिवार ज्यादा है, इसलिए सबके सुख-दुःख और कहानियां इन्हीं के पास आती हैं, एक दर्शक की तलाश में।    

ITOKRI कैसे काम करता है...
ITOKRI के काम करने का तरीका औरों से काफी अलग है। देश के लगभग सारे राज्यों के सांस्कृतिक कलेक्शन वाले परिधान एक ही छत के नीचे मुहैया कराने उन्हें ऑनलाइन ग्राहकों तक पहुँचाने का काम करता है। राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय सभी जगह बहुत ही कम समय में डिलीविरी और ग्राहकों को संतुष्टि ही इसका एक मात्र उद्देश्य है। ग्राहकों के साथ-साथ यहाँ काम करने वाले वर्करों के लिए भी यह एक कंपनी नहीं बल्कि घर जैसा है। यहाँ काम, काम की तरह नहीं बल्कि काम को सहज एवं मनोरंजक तरीके से करने का हुनर भी सिखाया जाता है। लगभग हर महिला वर्कर को कम्प्युटर से लेकर कस्टमर केयर तक के सभी काम आते हैं। उनका कोई बॉस नहीं और न ही उनका कोई टीम लीडर होता है।

कंपनी अपनी वर्कर प्रोफाइल में यह नहीं देखती कि उसे क्या आता है? उसने कहाँ तक पढ़ाई की है बल्कि उनके अंदर की रचनात्मकता क्या है? उसके आधार पर उसका चयन होता है। जहाँ लगभग आज के दौर में सारी कंपनियां एम्पलॉय को लेते वक्त उसका एक्सपीरियंस देखती हैं। कहाँ और कितनों दिनों तक काम का उसका अनुभव रहा है। लेकिन ITOKRI अनुभव नहीं देखती बल्कि वह खुद उसे अनुभवी बनाती है। साथ ही हर ग्राहक को वह उसके किए गए ऑर्डर के साथ एक हस्त लिखित चिट्ठी और हस्त निर्मित गिफ्ट भेजती है। चिट्ठियाँ लिखने का काम भी सभी को करना होता है। ग्राहक ने कितनी बार खरीददारी की है, चिट्ठी उसी के अनुसार भेजी जाती है। आई.टोकरी का मूल उद्देश्य ग्राहक की संतुष्टि के साथ अधिक से अधिक लोगों को रोजगार से जोड़ने का है।
पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे इसलिए कम से कम से प्लास्टिक का इस्तेमाल आई.टोकरी में किया जाता है। पैकिंग के लिए पेपर और हस्त निर्मित बॉक्स (दफ्ती) को इस्तेमाल में लाया जाता है। ताकि उसे अन्य काम के लिए भी इस्तेमाल किया जा सके!

वहाँ काम करने वाली सबसे पुरानी महिलाकर्मी किरन बताती हैं कि मैं पिछले सात साल से यहाँ काम कर रही हूँ। मुझे इससे पहले कोई काम नहीं आता था। पर जब मैं काम के लिए आई तो दीदी (जिया) ने मुझे काम पर रख लिया। पहले यहाँ तमाम तरह के काम किए। लेकिन दीदी ने मेरे अंदर के हुनर को पहचाना और मुझे जलपरी सेक्शन में जगह मिली जहाँ ज्वैलरी बनती है। आज मैं एक कुशल ज्वैलरी कारीगर हूँ। मेरी कई सहयोगी महिला कर्मी हैं। मुझे क्या बनाना है, कैसे बनाना है। बाजार की क्या माँग है, यह मैं कई बार खुद ही तय करती हूँ। ऑफिस आने का कोई समय नहीं है जब आप का मन करे आ सकते हैं और जा भी सकते हैं। बस आप को अपने काम की जिम्मेदारी खुद संभालनी होती है। सुबह यदि जल्दी आना होता तो ब्रेकफ़ास्ट यहीं मिलता है। आप को जैसे काम करना है आप स्वतंत्र रूप से काम कर सकते हैं किसी भी तरह का कोई दबाव नहीं बनाया जाता है। आज मेरे घर के दो बच्चे और मैं यहाँ काम कर रही हूँ। जब इसकी शुरुआत हुई थी तो यहाँ सिर्फ 6 से 7 लोग ही काम करते थे और आज 100 से अधिक महिलाएँ यहाँ काम करती हैं, खासकर वह जो पढ़ना-लिखना चाहती हैं और साथ कुछ काम भी करना चाहती हैं। परीक्षा और क्लास के लिए हुई छुट्टियों का पैसा नहीं काटा जाता है।

अंजुम खान बताती हैं कि मैं पिछले छः साल से यहाँ काम कर रही हूँ। साथ ही पढ़ाई भी जारी है। अगर घर में रहती तो अभी तक शादी हो गई होती लेकिन ITOKRI ने मुझे नौकरी के साथ पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। मैंने एम.कॉम पूरा कर लिया है। आगे की पढ़ाई के साथ ही कंपटीशन कि तैयारी भी कर रही हूँ। यहाँ मैं अकाउंट से लेकर सेल्स तक का सब काम जानती और करती हूँ। जब मैं यहाँ आई थी तो मुझे किसी भी तरह के काम का कोई भी अनुभव नहीं था। खास कर मैं लोगों से बात करने से बहुत डरती थी। लेकिन आज मैं कस्टमर से लेकर सारे काम संभालती हूँ। ITOKRI से मुझे घर जैसा प्यार और प्रोत्साहन मिला तभी तो मैं आगे बढ़ पायी हूँ। मेरे यह पूंछने पर कि कहीं और अधिक सैलरी मिले तो क्या वहाँ जाना नहीं चाहोगी? तो अंजुम बताती हैं कि कई बार ज्यादा पैसे मायने नही रखते क्योंकि सब कंपनियों में आप को यहाँ जैसा माहौल नहीं मिलेगा। यहाँ समय और काम की बाध्यता नहीं है। आप निर्णय लेने के लिए भी स्वतंत्र होते हैं। जैसे भी चाहे वैसे काम कर सकती हूँ। न छुट्टियों की दिक्कत होती है और नहीं कभी सैलरी की। मेरी दो बहने भी यहाँ काम कर रही हैं। उनकी भी पढ़ाई निरंतर चल रही है। और यह सब संभव हो पाया तो ITOKRI के माध्यम से

लवेश मधावनी अपने बारे में बताते हैं कि मुझे भी किसी तरह के काम का अनुभव नहीं था। अंडर प्रोसेस टीम में आया था, और धीरे-धीरे मुझे अपने अंदर के कलाकार को पहचानने का मौका ITOKRI ने दिया आज मैं प्रॉडक्ट फोटोग्राफी संभाल रहा हूँ। साथ ही मुझे यहाँ के हर तरह के काम में कौशल प्राप्त है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यहाँ काम करने की पूरी आजादी है। काम के आठ घण्टे तो निर्धारित हैं, अब आप पर निर्भर करता है कि कब आना है और कब जाना है।

वैसे ही एक और टीम हैं जो सब कुछ करने में सक्षम है उन्हें आल इन वन के नाम से जाना जाता है। उस टीम में प्रियंका (22), उपसाना (22) और वैशाली (21) आदि हैं वह भी अपने बारे में और काम के अनुभव साझा करते समय प्रफुल्लित हो कर बताती हैं कि यहाँ काम करने के बाद हमारे व्यक्तित्व में बहुत बदलाव आया है। अब घर से बाहर निकलने और किसी से बात करने में डर नहीं लगता। अपने काम हम खुद ही करते हैं वह चाहे घर के हो या स्कूल कॉलेज के हो। वैसे तो लड़कियों को काम करने की आजादी नहीं दी जाती। यदि कहीं काम मिल भी जाए तो समाज में ऐसा माहौल नहीं है कि कार्य-स्थाल पर सेफ महसूस कर पायें पर ITOKRI के सारे स्टाफ और अन्य लोगों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है एकदम पारिवारिक माहौल यहाँ मिलता है। हर व्यक्ति एक दूसरे को सिखाने का काम करता है कोई किसी की टाँग खींचने या छोटा दिखाने की कोशिश नहीं करता। सब एक दूसरे के काम में सहयोग करते हैं। काम की शिफ्टें रोटेड होती रहती हैं। इसलिए सब को सब कुछ सीखने का मौका भी मिलता रहता है। फ़्रेशर आये लोगों में काम करने की कैप्सिटी है या नहीं, उनके अंदर कितनी रचनात्मकता है। यही यहाँ देखा जाता है। और उसके लिए उसको पर्याप्त समय भी दिया जाता है। जो भी आप ने पढ़ा लिखा है, जाना समझा है, वो वाकई में जाना है या नहीं इसी बात का परीक्षण कर चुनाव किया जाता है। वैसे यहाँ आने वाले किसी भी व्यक्ति को काम से निकाला नहीं जाता यदि वह खुद छोड़ के चला जाए तो अलग बात है। आज मैं किसी से भी मुखर हो कर बात कर सकती हूँ। उसका कॉन्फिडेंस ITOKRI के साथ काम करके ही आया है।

रानू जो ITOKRI के अकाउंट सेक्शन को देखती हैं। उम्र में तो वह काफी छोटी हैं लेकिन उनके अंदर कॉन्फिडेंस की कमी नहीं है। रानू ने ही मुझे ITOKRI की सारी गतिविधियों से परिचित कराया। रानू के भी अपने अनुभव लगभग वैसे ही हैं। घर का सपोर्ट करने के लिए नौकरी की थी आज वह सारे कामों में मास्टर हो चुकी हैं। सारे डिपार्टमेन्टस के काम उन्हें बखूबी आते हैं। उनकी एक और बहन यहीं काम करती है। दोनों ही अकाउंट(B.COM.) में पढ़ाई कर रही हैं। साथ ही ITOKRI में तमाम तरह के किरदारों को भी निभा रही हैं। यह आसानी से कहा जा सकता है कि ITOKRI एक खुशमिजाज़ और जीवंत अनुभवों से भरी हुई जीवट टोली की तरह है जो नीरस और ऑटोमेटेड व्यापारिक जगत में भीनी सी खुशबू फ़ैलाने की कोशिश करती है। सीधे, सच्चे और सरल मन से...

ऐसी तमाम कहानियों से भरा है ITOKRI का यह सफर जो नए बदलाव की कहानी कहता है। ITOKRI को उसकी टैग लाइन भी औरों से अलग बनाती हैं... जहाँ समाज एक तरफ आधुनिकता के साथ कदम बढ़ा रहा है वहीं ITOKRI गावों और कस्बों की सांस्कृतिक धरोहरों और कलाओं को विश्व फ़लक पर लाने का काम कर रहा है। साथ ही बहुत से परिवारों के लिए रोजगार का साधन भी मुहैया करा रहा है।   
यह एक उत्सव की दावत है...भारतीय रचना और संवाद का उत्सव!!!
हम उत्सव मनाएंगे उन लाखों कबीलाई जातियों की तरह जो ख़ुशी में, गम में, मृत्यु में, प्रतिरोध में नाचती आई हैं बिना किसी की परवाह किये हुए... अपने स्वपनों, अपनी चिंताओं के साथ...
उन्मुक्तता से!!! 
Naresh Gautam & Rohit Kumar
8007840158
nareshgautam0071@gmail.com

Sunday 18 November 2018

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में ट्रांसजेंडरों की दस्तक


छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव में इस बार आधा दर्जन से अधिक सीटों पर किन्नर उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे हैं। मध्यप्रदेश के इटारसी और शहडोल विधानसभा क्षेत्र से दो किन्नर उम्मीदवार चुनाव मैदान में है। इसी शहडोल विधानसभा क्षेत्र से वर्ष 2000 में निर्दलीय चुनाव जीतकर शबनम मौसी ने सबको चौंका दिया था। वहीं छत्तीसगढ़ के विलासपुर, रायगढ़, अंबिकापुर और दुर्ग शहर विधानसभा क्षेत्र से किन्नर उम्मीदवार उतरी हैं। ये सभी निर्दलीय हैं। दुर्ग शहर से 28 वर्षीय कंचन शेन्द्रे नामक किन्नर ने अपनी उम्मीदवारी दी है। उच्च शिक्षा प्राप्त कंचन सोशल वर्क विषय से एमए हैं। वह छत्तीसगढ़ ट्रांसजेंडर वेल्फेयर बोर्ड की मेंबर भी रही हैं। बोर्ड की सदस्यता से इस्तीफा देकर चुनाव मैदान में उतरी हैं। इसके पूर्व एड्स जागरूकता अभियान और मतदाता जागरूकता अभियान में भी वह बढ़-चढ़कर भूमिका अदा कर चुकी है।
किन्नरों को अब तक नाचते-गाते, अलग अंदाज़ में तालियाँ बजाते और मांगते हुए ही ज़्यादातर लोगों ने देखा है। समाज में आज भी उनके साथ इंसानियत का व्यवहार नहीं किया जाता है। ज़्यादातर उन्हें हास्य-व्यंग्य और उपहास की नजरों से ही देखा जाता है। ऐसी स्थिति में किन्नरों का चुनाव मैदान में उतरना अपने आपमें अत्यंत ही साहसिक कदम है। कंचन शेन्द्रे की उम्मीदवारी को इसी नजरिए से देखा जा रहा है। उनके चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों और उस पर समाज की प्रतिक्रिया को समझने के लिए हमने एक पूरा दिन उनके चुनाव प्रचार में बिताया। उसी को संक्षेप में नीचे व्यक्त करने का प्रयास किया गया है- 

 चुनाव हेतु पर्चा दाखिल करते वक्त ही कंचन ने किन्नरों के लिए बड़ी राजनीतिक जद्दोजहद शुरू कर दी थी। कंचन बताती हैं कि नामांकन फॉर्म में इस चुनाव में भी महिला और पुरुष का ही कॉलम है। थर्ड जेंडर के लिए कोई स्वतंत्र कॉलम नहीं है। किन्तु मैं अपनी ट्रांसजेंडर पहचान के साथ ही चुनाव लड़ना चाहती थी, मैंने चुनाव आयोग से इस आशय का अनुरोध किया। चुनाव आयोग ने हमारी इस मांग को स्वीकार करते हुए मुझे अपनी पहचान के साथ न केवल नामांकन पर्चा दाखिल करने की ही अनुमति दी बल्कि यह भी आश्वासन दिया कि आगामी चुनाव के नामांकन फॉर्म में तीसरे लिंग के लिए भी कॉलम रहेगा। कंचन बताती हैं कि यह ट्रांसजेंडर के लिए अहम राजनीतिक जीत है।  

मेरी भी उमर तुम्हें लग जाए! किसी नेता के मुंह से मतदाताओं के लिए ऐसी कामना करते हुए शायद ही किसी ने सुना होगा। दुर्ग शहरी विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर चुनाव मैदान में उतरी किन्नर उम्मीदवार कंचन शेन्द्रे को अपने चुनाव प्रचार के दरम्यान मतदाताओं से मिलते हुए यह दुआ करते हुए सहज ही देखा जा सकता है। दुआओं में किसी का यकीन हो अथवा नहीं, किन्तु दूसरों के प्रति खुद को कुर्बान कर देने की भावना की अभिव्यक्ति के बतौर इसे देखा-समझा जा सकता है। पतनशील राजनीति के मौजूदा दौर में इस किन्नर प्रत्याशी में आम जनता के प्रति इस किस्म की भावना का होना ही अपने आपमें काफी महत्वपूर्ण और दिल को छू लेने वाला है। यह बात उसे अन्य सभी स्त्री-पुरुष उम्मीदवारों से अलग करती है।
चुनाव आयोग द्वारा राज्य में दो चरणों में मतदान कराया जा रहा है। पहला चरण का मतदान 12 नवंबर को ख़त्म हो चुका है। जबकि दूसरे चरण का मतदान 20 नवम्बर को होना है। दुर्ग जिले के इस शहरी विधानसभा क्षेत्र में दूसरे चरण में मतदान होना है। परंपरागत तौर पर दुर्ग का क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है। किसी जमाने में कांग्रेस के कद्दावर नेता मोतीलाल वोरा यहाँ से प्रतिनिधित्व करते थे। यहाँ तक कि आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में जहाँ इंदिरा गांधी तक अपनी सीट नहीं बचा पाई थी और चुनाव हार गई थीं। वहीं उस चुनाव में भी मोतीलाल वोरा चुनाव जीतने में सफल रहे थे। वे दो बार अविभाजित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रह चुके हैं। उनके पुत्र अरुण वोरा तीसरी बार यहाँ से विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी उन्हें ही जीत हासिल हुई थी। हालांकि उन्हें भाजपा ने लगभग डेढ़ दशक तक तीन विधानसभा चुनाव में काफी करीबी चुनावी संघर्ष में मात दी थी। आजादी के बाद से लेकर पिछले चुनाव तक कांग्रेस ही यहाँ से चुनाव जीतती आ रही थी। कांग्रेस की इस जीत का सिलसिला 1998 में टूटा था और अरुण वोरा भाजपा के उम्मीदवार से चुनाव हार गए थे। वर्ष 2013 में कांग्रेस के अरुण वोरा ही एक बार फिर भाजपा को शिकस्त देने में कामयाब हुए। इस बार भी कांग्रेस के सिटिंग उम्मीदवार अरुण वोरा हैं जबकि भाजपा ने दुर्ग शहर की महिला मेयर को अपना प्रतयाशी बनाया है। कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़ा मुकाबला बताया जा रहा है। वैसे भी इस सीट पर पिछले कई चुनावों में जीत-हार काफी कम मतों के अंतर से होता रहा है। इस मायने में यह सीट इन दोनों दलों के लिए राजनैतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पार्टी ने भी यहाँ से अपना प्रतयाशी उतारा है। कंचन शेन्द्रे की उम्मीदवारी ने इस चुनाव को और भी दिलचस्प बना दिया है। कंचन बताती हैं कि भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के लोग उनसे समर्थन मांगने आए थे, किन्तु हमने साफ इंकार कर दिया।

कंचन अत्यंत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किन्नरों की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए उसे अपना पॉलिटिकल स्टैंड बना देती है- हमारा न कोई बाप न भाई न औलाद है, हमको जिताओ हम तुम्हारा दुःख-तकलीफ दूर करेंगे! किन्नरों के समुचित विकास के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को कंचन जरूरी बताती हैं। वह कहती हैं कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की ही तर्ज पर किन्नरों के लिए भी राज्यों के विधानसभाओं तथा लोकसभा में कुछ सीटें आरक्षित होनी चाहिए। वे अफसोस व्यक्त करते हुए कहती हैं कि महिलाओं के आरक्षण की बात होती है किन्तु किन्नरों की कोई बात नहीं करता है। मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के चुनावी घोषणा-पत्र में भी किन्नरों के लिए कुछ भी नहीं है। इससे साफ जाहिर होता है कि समाज में वर्षों से उपेक्षा का शिकार हो रहे किन्नरों की उन्नति उनकी प्राथमिकता में नहीं है।
आज जहां चुनाव प्रचार में ज़्यादातर नेताओं के काफिले चमकती गाड़ियों और किराए के लोगों के सहारे ही चलते हैं। इससे अलग हटकर कंचन के चुनाव प्रचार अभियान में एक दर्जन से अधिक किन्नर शामिल रहते हैं। चार-पाँच के करीब पुरुष और तीन-चार युवतियां व महिलाएँ भी शामिल थीं। कंचन के चुनाव प्रचार में शामिल चंचल किन्नर काफी मुखर होकर मतदाताओं से बात करती हैं। दुर्ग शहरी विधानसभा का प्रतिनिधित्व करने वाले अब तक के नेताओं के बारे में कहती हैं कि- यहाँ नेता नहीं, बेटा है। उनका इशारा मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण वोरा की तरफ है। दुर्ग शहर के गंजपाड़ा उत्कल कॉलोनी के 39 वर्षीय नागरिक संतोष सागर तल्खी के साथ कहते हैं कि आज के नेता जनता का खून पी रहे हैं। उसी कॉलोनी की 30 वर्षीय युवती तुलसी सोनी बीच में ही बोल उठती है कि- कांग्रेस को इत्ते वर्षों से जिताया, मोदी को जिताया। हमारे लिए इन सबने अब तक क्या किया! इसलिए हमने इस बार नए चेहरे को समर्थन देना तय किया है। निर्दलीय उम्मीदवार कंचन शेन्द्रे को वह इस बार के विधानसभा चुनाव का सबसे योग्य प्रत्याशी मानती हैं। संतोष भी कहते हैं कि कंचन जैसी जमीनी और जनसाधारण की पीड़ा को समझने वाली नेता ही इस क्षेत्र की तस्वीर बदल सकती है। पिछले तीन-चार दिन से ये दोनों उनके काफिले के साथ चुनावी प्रचार में भी हिस्सा ले रहे हैं।

जोश व आत्मविश्वास से लबरेज कंचन अपने चुनाव प्रचार हेतु गए मोहल्ले में जमा लोगों से मुखातिब होते हुए कहती हैं कि, चुनाव के वक्त बड़े-बड़े नेता जनता से बड़े-बड़े वादे करते हैं, किन्तु चुनाव जीतते ही सारे वादे भूल जाते हैं। देश में मंहगाई बढ़ती जा रही है, गरीबों का जीना मुहाल होता जा रहा है। गैस सिलिंडर की कीमत आसमान छू रही है। आज देश में अमीर और अमीर होते जा रहे हैं जबकि गरीबों की स्थिति बदहाल बनी हुई है। उनके साथी कार्यकर्ता इस नारे के सहारे कंचन के निर्दलीय उम्मीदवार होने को औचित्य प्रदान करने हेतु बीच-बीच में यह नारा भी उछालते हैं- सारे दलों में दलदल है, सबसे अच्छा निर्दल है! बजरंग नगर उरला दुर्ग मोहल्ले में उनका चुनाव प्रचार काफिला पहुंचा। दो वार्डों वाला यह मोहल्ला काफी बड़ा है। मोहल्ले में अटल आवास योजना के तहत दो-तीन कॉलोनियाँ भी हैं। इन कालोनियों में विभिन्न जातियों के गरीब-आवासविहीन परिवार रहते हैं। एक-एक कमरे वाला घर इन परिवारों को आवंटित किया गया है। इन कालोनियों की हालत अत्यंत ही दयनीय है। जगह-जगह कूड़े-कचरे का अंबार लगा हुआ था, नालियों में गंदगी अटी पड़ी है। नालियों को देखते हुए ऐसा लग रहा था मानो कई महीनों से उसकी सफाई ही नहीं हुई हो। वहाँ रहने वाले ज़्यादातर गरीब लोग दुर्ग में ही मजदूरी और सड़कों के किनारे छोटा-मोटा दुकान लगाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। इस मोहल्ले में कंचन के प्रचार काफिले के पहुँचते ही धीरे-धीरे उनका काफिला बढ़ता चला गया। कंचन उनके घरों में अपनेपन के साथ बेधड़क घुस जाती हैं और घर के स्त्री-पुरुषों से वोट देने की अपील करती जाती हैं और अपना चुनाव चिन्ह को याद रखने की बात दोहराती जाती हैं। हर जगह वह यह कहना नहीं भूलती कि- सबको जिताकर देख लिया न, एक बार हमको जिताकर देखो! यहाँ हमको से उसका अभिप्राय किन्नर से है। बीच-बीच में प्रचार काफिले में शामिल किन्नर ऊंची आवाज में यह नारा भी बुलंद करते हैं कि- नर न नारी, किन्नर की बारी! मोहल्ले की एक अधेड़ उम्र की महिला द्रौपदी यादव और इन्द्र कुमार भी उसके काफिले में शामिल हो जाते हैं। ये दोनों भी मोहल्ले के लोगों से यह कहते हैं कि- बड़े-बड़े को जिताकर देखा, एक बार इसे ही वोट देना है।
इसी बात को पचास वर्षीय कलेन्द्री साहू और तिरुमती भी दूसरे शब्दों में लोगों से कहती है कि- कलम और पंजा को अब तक वोट देते रहे पर कुछ बदलाव नहीं आया। इसलिए इस बार कंचन को ही जिताना है। मोहल्ले के लोगों की अनेक शिकायते हैं, किसी का अब तक राशन कार्ड नहीं बना है तो सरकार द्वारा आवंटित किसी के घर  में सात वर्ष बीत जाने के बाद भी खिड़की तक नहीं लगी है। मोहल्ले की नालियों में जाम पड़ी गंदगी की नियमित सफाई नहीं कराए जाने के खिलाफ भी गुस्सा है। इन अति साधारण लोगों में कांग्रेस-बीजेपी दोनों के खिलाफ आक्रोश है। कंचन और उसके साथी किन्नरों को मोहल्ले के लगभग सभी लोग पहचानते हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि इन लोगों का इन मोहल्लों में आना-जाना बना रहता है।
कंचन के चुनाव प्रचार का अपना ही अंदाज है, वह विभिन्न उम्र समूह के स्त्री-पुरुषों से उनके उम्र के अनुरूप रिश्ता जोड़ते हुए अत्यंत ही पॉपुलर शैली में प्रचार करती हैं। युवाओं को भाई’, बुजुर्ग पुरुषों को काका तो हम उम्र स्त्रियों को बहिनी, बहन और उम्रदराज स्त्रियों को दाई और अम्मा पुकारते हुए उनसे अत्यंत ही सरल शब्दों में संवाद करती है। जहां चमक-दमक वाले उम्मीदवारों से बात तक करने में गरीब व वंचित तबके के लोग हिचकते हैं, वहीं कंचन से ये लोग बेझिझक अपनी समस्याओं को साझा कर रहे थे। लोगों को अब तक यहाँ से बारी-बारी से चुनाव जीतकर जाने वाले कांग्रेस-बीजेपी के नेताओं से काफी शिकायतें थी।

जीतने पर अच्छा घर बनाकर दूँगी, तुम्हें रोजी-रोजगार दिलाने के लिए प्रयास करूंगी। एक बार किन्नर पर विश्वास करो!’, जो तुम्हारे बीच से रहेगा, वही तुम्हारी फिक्र करेगा। मेरे पास न गाड़ी है और न ही पैसा है। मैं आपसे हाथ जोड़कर अपील करने आई हूँ कि मुझे आप एक बार सेवा करने का मौका दें! लोगों से इस तरह की अपील करते हुए कंचन आगे बढ़ती हैं, उनके साथी किन्नर झुंड बनाकर लोगों से वोट देने की अपील करती जाती हैं। पूरे दिन भर यह सिलसिला चलता रहा। साधारण लिबास और साधारण मेकअप में भी कंचन के चेहरे पर गज़ब का आत्मविश्वास और जुनून दिखता है। तेज कदमों से चलते हुए वह हर किसी से खुद मिलती है। मोहल्ले के छोटे-छोटे बच्चों को भी बीच-बीच में प्यार-दुलार करते जाती हैं। महिलाओं को गले लगाती हैं। लोगों के सिर पर परंपरागत तरीके से हाथ फेरती हैं। लगातार वह सबकी मुरादें पूरी होने की मंगलकामनाएं भी करती जाती हैं। चुनाव प्रचार के दौरान एक ही साथ वह कुशल राजनेता, स्नेहमयी माँ और अत्यंत ही संवेदनशील इंसान का किरदार निभाती हुई दिखती हैं। न कोई जुमला, न कोई बड़बोलापन। एकदम साधारण और सबके दिलों में उतर जाने की कोशिश करती दिखती हैं। सबसे मुसकुराते हुए वह मिलती हैं। उसकी मुस्कान में न तो किसी किस्म की कोई कुटीलता ही दिखाई देती है और न ही धूर्तता। उनकी चमकती आँखों में लोगों के लिए कुछ कर गुजरने के सपने को बखूबी देखा जा सकता है।  

थर्ड जेंडर पर पीएचडी शोध कर रहे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र के शोधार्थी डिसेंट कुमार साहू किन्नरों की राजनीतिक यात्रा के बारे में बताते हुए कहते हैं कि- वर्ष 1994 के पूर्व तक किन्नरों को मतदान का अधिकार भी नहीं था। 1994 में स्त्री पहचान के साथ उन्हें मतदान का अधिकार मिला। इसके पूर्व वे पुरुष पहचान के साथ ही मतदान कर सकते थे। वर्ष 2000 में पहली बार शबनम मौसी नामक किन्नर मध्यप्रदेश के शहडौल से विधान सभा चुनाव जीतने में कामयाब रही थी, किन्तु नामांकन के वक्त उन्हें पुरुष कॉलम के तहत फॉर्म भरना पड़ा था। वर्ष 2011 की जनगणना में पहली बार स्त्री और पुरुष कॉलम से इतर एक तीसरा कॉलम अन्य रखा गया। इससे थर्ड जेंडर को स्त्री-पुरुष खांचे से से इतर अन्य के रूप में स्वीकृति का रास्ता खुला। छठे आर्थिक जनगणना वर्ष 2013 में थर्ड जेंडर द्वारा चलाए जाने वाले व्यवसाय की भी गणना हुई। वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन्हें संवैधानिक तौर पर तृतीय लिंग (ट्रांसजेंडर) के रूप में मान्यता प्राप्त हुई।   

रिपोर्ट : डॉ. मुकेश कुमार एवं चैताली
फोटो क्रेडिट : नरेश गौतम
(छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर विधानसभा क्षेत्र की निर्दलीय किन्नर प्रत्याशी कंचन शेन्द्रे के चुनाव प्रचार का आँखों देखा हाल। हमारी टीम एक पूरा दिन उनके चुनाव प्रचार काफिले के साथ रही और बीच-बीच में उनसे हमारी बातें भी होती रही। इसी आधार पर यह रिपोर्ट लिखी गई है।) 
टीम में शामिल थे- Dr. Mukesh Kumar, Naresh Gautam, Chaitali S G, Chandan Saroj, Prerit Aruna Mohan, Ravi Chandra, Sultan Mirza, Sudheer Kumar, शिवानी अग्रवाल, Nita Ughade