Sunday 18 November 2018

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में ट्रांसजेंडरों की दस्तक


छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव में इस बार आधा दर्जन से अधिक सीटों पर किन्नर उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे हैं। मध्यप्रदेश के इटारसी और शहडोल विधानसभा क्षेत्र से दो किन्नर उम्मीदवार चुनाव मैदान में है। इसी शहडोल विधानसभा क्षेत्र से वर्ष 2000 में निर्दलीय चुनाव जीतकर शबनम मौसी ने सबको चौंका दिया था। वहीं छत्तीसगढ़ के विलासपुर, रायगढ़, अंबिकापुर और दुर्ग शहर विधानसभा क्षेत्र से किन्नर उम्मीदवार उतरी हैं। ये सभी निर्दलीय हैं। दुर्ग शहर से 28 वर्षीय कंचन शेन्द्रे नामक किन्नर ने अपनी उम्मीदवारी दी है। उच्च शिक्षा प्राप्त कंचन सोशल वर्क विषय से एमए हैं। वह छत्तीसगढ़ ट्रांसजेंडर वेल्फेयर बोर्ड की मेंबर भी रही हैं। बोर्ड की सदस्यता से इस्तीफा देकर चुनाव मैदान में उतरी हैं। इसके पूर्व एड्स जागरूकता अभियान और मतदाता जागरूकता अभियान में भी वह बढ़-चढ़कर भूमिका अदा कर चुकी है।
किन्नरों को अब तक नाचते-गाते, अलग अंदाज़ में तालियाँ बजाते और मांगते हुए ही ज़्यादातर लोगों ने देखा है। समाज में आज भी उनके साथ इंसानियत का व्यवहार नहीं किया जाता है। ज़्यादातर उन्हें हास्य-व्यंग्य और उपहास की नजरों से ही देखा जाता है। ऐसी स्थिति में किन्नरों का चुनाव मैदान में उतरना अपने आपमें अत्यंत ही साहसिक कदम है। कंचन शेन्द्रे की उम्मीदवारी को इसी नजरिए से देखा जा रहा है। उनके चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों और उस पर समाज की प्रतिक्रिया को समझने के लिए हमने एक पूरा दिन उनके चुनाव प्रचार में बिताया। उसी को संक्षेप में नीचे व्यक्त करने का प्रयास किया गया है- 

 चुनाव हेतु पर्चा दाखिल करते वक्त ही कंचन ने किन्नरों के लिए बड़ी राजनीतिक जद्दोजहद शुरू कर दी थी। कंचन बताती हैं कि नामांकन फॉर्म में इस चुनाव में भी महिला और पुरुष का ही कॉलम है। थर्ड जेंडर के लिए कोई स्वतंत्र कॉलम नहीं है। किन्तु मैं अपनी ट्रांसजेंडर पहचान के साथ ही चुनाव लड़ना चाहती थी, मैंने चुनाव आयोग से इस आशय का अनुरोध किया। चुनाव आयोग ने हमारी इस मांग को स्वीकार करते हुए मुझे अपनी पहचान के साथ न केवल नामांकन पर्चा दाखिल करने की ही अनुमति दी बल्कि यह भी आश्वासन दिया कि आगामी चुनाव के नामांकन फॉर्म में तीसरे लिंग के लिए भी कॉलम रहेगा। कंचन बताती हैं कि यह ट्रांसजेंडर के लिए अहम राजनीतिक जीत है।  

मेरी भी उमर तुम्हें लग जाए! किसी नेता के मुंह से मतदाताओं के लिए ऐसी कामना करते हुए शायद ही किसी ने सुना होगा। दुर्ग शहरी विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर चुनाव मैदान में उतरी किन्नर उम्मीदवार कंचन शेन्द्रे को अपने चुनाव प्रचार के दरम्यान मतदाताओं से मिलते हुए यह दुआ करते हुए सहज ही देखा जा सकता है। दुआओं में किसी का यकीन हो अथवा नहीं, किन्तु दूसरों के प्रति खुद को कुर्बान कर देने की भावना की अभिव्यक्ति के बतौर इसे देखा-समझा जा सकता है। पतनशील राजनीति के मौजूदा दौर में इस किन्नर प्रत्याशी में आम जनता के प्रति इस किस्म की भावना का होना ही अपने आपमें काफी महत्वपूर्ण और दिल को छू लेने वाला है। यह बात उसे अन्य सभी स्त्री-पुरुष उम्मीदवारों से अलग करती है।
चुनाव आयोग द्वारा राज्य में दो चरणों में मतदान कराया जा रहा है। पहला चरण का मतदान 12 नवंबर को ख़त्म हो चुका है। जबकि दूसरे चरण का मतदान 20 नवम्बर को होना है। दुर्ग जिले के इस शहरी विधानसभा क्षेत्र में दूसरे चरण में मतदान होना है। परंपरागत तौर पर दुर्ग का क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है। किसी जमाने में कांग्रेस के कद्दावर नेता मोतीलाल वोरा यहाँ से प्रतिनिधित्व करते थे। यहाँ तक कि आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में जहाँ इंदिरा गांधी तक अपनी सीट नहीं बचा पाई थी और चुनाव हार गई थीं। वहीं उस चुनाव में भी मोतीलाल वोरा चुनाव जीतने में सफल रहे थे। वे दो बार अविभाजित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रह चुके हैं। उनके पुत्र अरुण वोरा तीसरी बार यहाँ से विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी उन्हें ही जीत हासिल हुई थी। हालांकि उन्हें भाजपा ने लगभग डेढ़ दशक तक तीन विधानसभा चुनाव में काफी करीबी चुनावी संघर्ष में मात दी थी। आजादी के बाद से लेकर पिछले चुनाव तक कांग्रेस ही यहाँ से चुनाव जीतती आ रही थी। कांग्रेस की इस जीत का सिलसिला 1998 में टूटा था और अरुण वोरा भाजपा के उम्मीदवार से चुनाव हार गए थे। वर्ष 2013 में कांग्रेस के अरुण वोरा ही एक बार फिर भाजपा को शिकस्त देने में कामयाब हुए। इस बार भी कांग्रेस के सिटिंग उम्मीदवार अरुण वोरा हैं जबकि भाजपा ने दुर्ग शहर की महिला मेयर को अपना प्रतयाशी बनाया है। कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़ा मुकाबला बताया जा रहा है। वैसे भी इस सीट पर पिछले कई चुनावों में जीत-हार काफी कम मतों के अंतर से होता रहा है। इस मायने में यह सीट इन दोनों दलों के लिए राजनैतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पार्टी ने भी यहाँ से अपना प्रतयाशी उतारा है। कंचन शेन्द्रे की उम्मीदवारी ने इस चुनाव को और भी दिलचस्प बना दिया है। कंचन बताती हैं कि भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के लोग उनसे समर्थन मांगने आए थे, किन्तु हमने साफ इंकार कर दिया।

कंचन अत्यंत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किन्नरों की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए उसे अपना पॉलिटिकल स्टैंड बना देती है- हमारा न कोई बाप न भाई न औलाद है, हमको जिताओ हम तुम्हारा दुःख-तकलीफ दूर करेंगे! किन्नरों के समुचित विकास के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को कंचन जरूरी बताती हैं। वह कहती हैं कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की ही तर्ज पर किन्नरों के लिए भी राज्यों के विधानसभाओं तथा लोकसभा में कुछ सीटें आरक्षित होनी चाहिए। वे अफसोस व्यक्त करते हुए कहती हैं कि महिलाओं के आरक्षण की बात होती है किन्तु किन्नरों की कोई बात नहीं करता है। मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के चुनावी घोषणा-पत्र में भी किन्नरों के लिए कुछ भी नहीं है। इससे साफ जाहिर होता है कि समाज में वर्षों से उपेक्षा का शिकार हो रहे किन्नरों की उन्नति उनकी प्राथमिकता में नहीं है।
आज जहां चुनाव प्रचार में ज़्यादातर नेताओं के काफिले चमकती गाड़ियों और किराए के लोगों के सहारे ही चलते हैं। इससे अलग हटकर कंचन के चुनाव प्रचार अभियान में एक दर्जन से अधिक किन्नर शामिल रहते हैं। चार-पाँच के करीब पुरुष और तीन-चार युवतियां व महिलाएँ भी शामिल थीं। कंचन के चुनाव प्रचार में शामिल चंचल किन्नर काफी मुखर होकर मतदाताओं से बात करती हैं। दुर्ग शहरी विधानसभा का प्रतिनिधित्व करने वाले अब तक के नेताओं के बारे में कहती हैं कि- यहाँ नेता नहीं, बेटा है। उनका इशारा मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण वोरा की तरफ है। दुर्ग शहर के गंजपाड़ा उत्कल कॉलोनी के 39 वर्षीय नागरिक संतोष सागर तल्खी के साथ कहते हैं कि आज के नेता जनता का खून पी रहे हैं। उसी कॉलोनी की 30 वर्षीय युवती तुलसी सोनी बीच में ही बोल उठती है कि- कांग्रेस को इत्ते वर्षों से जिताया, मोदी को जिताया। हमारे लिए इन सबने अब तक क्या किया! इसलिए हमने इस बार नए चेहरे को समर्थन देना तय किया है। निर्दलीय उम्मीदवार कंचन शेन्द्रे को वह इस बार के विधानसभा चुनाव का सबसे योग्य प्रत्याशी मानती हैं। संतोष भी कहते हैं कि कंचन जैसी जमीनी और जनसाधारण की पीड़ा को समझने वाली नेता ही इस क्षेत्र की तस्वीर बदल सकती है। पिछले तीन-चार दिन से ये दोनों उनके काफिले के साथ चुनावी प्रचार में भी हिस्सा ले रहे हैं।

जोश व आत्मविश्वास से लबरेज कंचन अपने चुनाव प्रचार हेतु गए मोहल्ले में जमा लोगों से मुखातिब होते हुए कहती हैं कि, चुनाव के वक्त बड़े-बड़े नेता जनता से बड़े-बड़े वादे करते हैं, किन्तु चुनाव जीतते ही सारे वादे भूल जाते हैं। देश में मंहगाई बढ़ती जा रही है, गरीबों का जीना मुहाल होता जा रहा है। गैस सिलिंडर की कीमत आसमान छू रही है। आज देश में अमीर और अमीर होते जा रहे हैं जबकि गरीबों की स्थिति बदहाल बनी हुई है। उनके साथी कार्यकर्ता इस नारे के सहारे कंचन के निर्दलीय उम्मीदवार होने को औचित्य प्रदान करने हेतु बीच-बीच में यह नारा भी उछालते हैं- सारे दलों में दलदल है, सबसे अच्छा निर्दल है! बजरंग नगर उरला दुर्ग मोहल्ले में उनका चुनाव प्रचार काफिला पहुंचा। दो वार्डों वाला यह मोहल्ला काफी बड़ा है। मोहल्ले में अटल आवास योजना के तहत दो-तीन कॉलोनियाँ भी हैं। इन कालोनियों में विभिन्न जातियों के गरीब-आवासविहीन परिवार रहते हैं। एक-एक कमरे वाला घर इन परिवारों को आवंटित किया गया है। इन कालोनियों की हालत अत्यंत ही दयनीय है। जगह-जगह कूड़े-कचरे का अंबार लगा हुआ था, नालियों में गंदगी अटी पड़ी है। नालियों को देखते हुए ऐसा लग रहा था मानो कई महीनों से उसकी सफाई ही नहीं हुई हो। वहाँ रहने वाले ज़्यादातर गरीब लोग दुर्ग में ही मजदूरी और सड़कों के किनारे छोटा-मोटा दुकान लगाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। इस मोहल्ले में कंचन के प्रचार काफिले के पहुँचते ही धीरे-धीरे उनका काफिला बढ़ता चला गया। कंचन उनके घरों में अपनेपन के साथ बेधड़क घुस जाती हैं और घर के स्त्री-पुरुषों से वोट देने की अपील करती जाती हैं और अपना चुनाव चिन्ह को याद रखने की बात दोहराती जाती हैं। हर जगह वह यह कहना नहीं भूलती कि- सबको जिताकर देख लिया न, एक बार हमको जिताकर देखो! यहाँ हमको से उसका अभिप्राय किन्नर से है। बीच-बीच में प्रचार काफिले में शामिल किन्नर ऊंची आवाज में यह नारा भी बुलंद करते हैं कि- नर न नारी, किन्नर की बारी! मोहल्ले की एक अधेड़ उम्र की महिला द्रौपदी यादव और इन्द्र कुमार भी उसके काफिले में शामिल हो जाते हैं। ये दोनों भी मोहल्ले के लोगों से यह कहते हैं कि- बड़े-बड़े को जिताकर देखा, एक बार इसे ही वोट देना है।
इसी बात को पचास वर्षीय कलेन्द्री साहू और तिरुमती भी दूसरे शब्दों में लोगों से कहती है कि- कलम और पंजा को अब तक वोट देते रहे पर कुछ बदलाव नहीं आया। इसलिए इस बार कंचन को ही जिताना है। मोहल्ले के लोगों की अनेक शिकायते हैं, किसी का अब तक राशन कार्ड नहीं बना है तो सरकार द्वारा आवंटित किसी के घर  में सात वर्ष बीत जाने के बाद भी खिड़की तक नहीं लगी है। मोहल्ले की नालियों में जाम पड़ी गंदगी की नियमित सफाई नहीं कराए जाने के खिलाफ भी गुस्सा है। इन अति साधारण लोगों में कांग्रेस-बीजेपी दोनों के खिलाफ आक्रोश है। कंचन और उसके साथी किन्नरों को मोहल्ले के लगभग सभी लोग पहचानते हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि इन लोगों का इन मोहल्लों में आना-जाना बना रहता है।
कंचन के चुनाव प्रचार का अपना ही अंदाज है, वह विभिन्न उम्र समूह के स्त्री-पुरुषों से उनके उम्र के अनुरूप रिश्ता जोड़ते हुए अत्यंत ही पॉपुलर शैली में प्रचार करती हैं। युवाओं को भाई’, बुजुर्ग पुरुषों को काका तो हम उम्र स्त्रियों को बहिनी, बहन और उम्रदराज स्त्रियों को दाई और अम्मा पुकारते हुए उनसे अत्यंत ही सरल शब्दों में संवाद करती है। जहां चमक-दमक वाले उम्मीदवारों से बात तक करने में गरीब व वंचित तबके के लोग हिचकते हैं, वहीं कंचन से ये लोग बेझिझक अपनी समस्याओं को साझा कर रहे थे। लोगों को अब तक यहाँ से बारी-बारी से चुनाव जीतकर जाने वाले कांग्रेस-बीजेपी के नेताओं से काफी शिकायतें थी।

जीतने पर अच्छा घर बनाकर दूँगी, तुम्हें रोजी-रोजगार दिलाने के लिए प्रयास करूंगी। एक बार किन्नर पर विश्वास करो!’, जो तुम्हारे बीच से रहेगा, वही तुम्हारी फिक्र करेगा। मेरे पास न गाड़ी है और न ही पैसा है। मैं आपसे हाथ जोड़कर अपील करने आई हूँ कि मुझे आप एक बार सेवा करने का मौका दें! लोगों से इस तरह की अपील करते हुए कंचन आगे बढ़ती हैं, उनके साथी किन्नर झुंड बनाकर लोगों से वोट देने की अपील करती जाती हैं। पूरे दिन भर यह सिलसिला चलता रहा। साधारण लिबास और साधारण मेकअप में भी कंचन के चेहरे पर गज़ब का आत्मविश्वास और जुनून दिखता है। तेज कदमों से चलते हुए वह हर किसी से खुद मिलती है। मोहल्ले के छोटे-छोटे बच्चों को भी बीच-बीच में प्यार-दुलार करते जाती हैं। महिलाओं को गले लगाती हैं। लोगों के सिर पर परंपरागत तरीके से हाथ फेरती हैं। लगातार वह सबकी मुरादें पूरी होने की मंगलकामनाएं भी करती जाती हैं। चुनाव प्रचार के दौरान एक ही साथ वह कुशल राजनेता, स्नेहमयी माँ और अत्यंत ही संवेदनशील इंसान का किरदार निभाती हुई दिखती हैं। न कोई जुमला, न कोई बड़बोलापन। एकदम साधारण और सबके दिलों में उतर जाने की कोशिश करती दिखती हैं। सबसे मुसकुराते हुए वह मिलती हैं। उसकी मुस्कान में न तो किसी किस्म की कोई कुटीलता ही दिखाई देती है और न ही धूर्तता। उनकी चमकती आँखों में लोगों के लिए कुछ कर गुजरने के सपने को बखूबी देखा जा सकता है।  

थर्ड जेंडर पर पीएचडी शोध कर रहे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र के शोधार्थी डिसेंट कुमार साहू किन्नरों की राजनीतिक यात्रा के बारे में बताते हुए कहते हैं कि- वर्ष 1994 के पूर्व तक किन्नरों को मतदान का अधिकार भी नहीं था। 1994 में स्त्री पहचान के साथ उन्हें मतदान का अधिकार मिला। इसके पूर्व वे पुरुष पहचान के साथ ही मतदान कर सकते थे। वर्ष 2000 में पहली बार शबनम मौसी नामक किन्नर मध्यप्रदेश के शहडौल से विधान सभा चुनाव जीतने में कामयाब रही थी, किन्तु नामांकन के वक्त उन्हें पुरुष कॉलम के तहत फॉर्म भरना पड़ा था। वर्ष 2011 की जनगणना में पहली बार स्त्री और पुरुष कॉलम से इतर एक तीसरा कॉलम अन्य रखा गया। इससे थर्ड जेंडर को स्त्री-पुरुष खांचे से से इतर अन्य के रूप में स्वीकृति का रास्ता खुला। छठे आर्थिक जनगणना वर्ष 2013 में थर्ड जेंडर द्वारा चलाए जाने वाले व्यवसाय की भी गणना हुई। वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन्हें संवैधानिक तौर पर तृतीय लिंग (ट्रांसजेंडर) के रूप में मान्यता प्राप्त हुई।   

रिपोर्ट : डॉ. मुकेश कुमार एवं चैताली
फोटो क्रेडिट : नरेश गौतम
(छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर विधानसभा क्षेत्र की निर्दलीय किन्नर प्रत्याशी कंचन शेन्द्रे के चुनाव प्रचार का आँखों देखा हाल। हमारी टीम एक पूरा दिन उनके चुनाव प्रचार काफिले के साथ रही और बीच-बीच में उनसे हमारी बातें भी होती रही। इसी आधार पर यह रिपोर्ट लिखी गई है।) 
टीम में शामिल थे- Dr. Mukesh Kumar, Naresh Gautam, Chaitali S G, Chandan Saroj, Prerit Aruna Mohan, Ravi Chandra, Sultan Mirza, Sudheer Kumar, शिवानी अग्रवाल, Nita Ughade















Monday 12 November 2018

आजादी के 70 साल बाद भी भाजपा-कांग्रेस के राज में दुर्ग शहर बना नरक

आजादी के 70 साल बाद भी भाजपा-कांग्रेस के राज में दुर्ग शहर नरक बना हुआ है। हमारे पास न गाड़ी है न बंगला है। बस ईमानदारी है, जनता की सेवा करने का संकल्प है।' यह कहना है छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहरी विधानसभा क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतरी किन्नर उम्मीदवार कंचन शेन्द्रे का। वे निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरी हैं और पिछले एक दशक से थर्ड जेंडर के प्रश्नों पर संघर्षशील, गरीबों-दलितों व नागरिक अधिकारों की आवाज बुलन्द कर रही हैं। वे छत्तीसगढ़ ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड की सदस्य भी रही हैं। बोर्ड की सदस्यता से इस्तीफा देकर वे चुनाव मैदान में उतरी हैं। बताते चलें कि पिछले कई दशकों से इस सीट पर बारी-बारी से कांग्रेस-बीजेपी के लोग चुनाव जीतते रहे हैं।
कंचन बताती हैं कि कांग्रेस-बीजेपी दोनों ने यहां की जनता से गद्दारी की है। वे शहर और जिले की बदहाली को बयां करते हुए कहती हैं कि पिछले दिनों दुर्ग जिले में 40 लोगों की डेंगू से मौत हो गई। जबकि यहां भाजपा के सांसद और मेयर और कांग्रेस के विधायक रहे हैं। इन जनप्रतिनिधियों को जनता की तनिक भी फिक्र नहीं है। पूरे शहर में गंदगी पसरी हुई है। कंचन कहती हैं कि ये स्थापित नेता जनता के बीच पूरी तरह से बेनकाब हो गए हैं। इनपर भरोसा करने का अर्थ क्षेत्र को गर्त में धकेलने के समान है। चुनाव में जनता के पास मौका है कि वे इन्हें सबक सिखा सकते हैं और अच्छे जनप्रतिनिधि का चयन कर सकते हैं।
उनके चुनाव मैदान में आने से कांग्रेस-भाजपा के दिग्गजों के पसीने छूट रहे हैं। शोर-शराबे से दूर उनका चुनाव प्रचार का अंदाज काफी निराला है। शासकवर्गीय पार्टियां जहां जनता के बुनियादी सवालों पर पर्दापोशी करती हैं और मुद्दों को भटकाती हैं, वहीं कंचन आम जनता के जीवन-जीविका से जुड़ी समस्यों पर मतदाताओं को गोलबंद करने की जद्दोजहद चला रही हैं। उनका चुनाव चिन्ह सिलाई मशीन छाप है। इसी चुनाव चिन्ह पर मतदाताओं से वोट देकर जन अधिकारों के संघर्ष को आगे बढ़ाने की वे अपील कर रही हैं। 
उनके और उनके साथ इस चुनावी मुहिम में जुटे सभी साथियों के जज्बे को सैल्युट!

Monday 5 November 2018

शिक्षा विहीन, जातिवादी विकास का मॉडल है गुजरात का गाँव

खेड़ा जिले के एक गाँव का हाल
अक्टूबर 2018 के अंतिम सप्ताह में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र के सोशल वर्क के स्टूडेंट्स के साथ शैक्षणिक भ्रमण हेतु गुजरात जाना हुआ था। हम कुल दो दर्जन की संख्या में थे। यात्रा पर निकलते हुए सभी गुजरात के विकास मॉडल को देखने को लेकर काफी उत्साहित थे। इस शैक्षणिक भ्रमण के दरम्यान गुजरात के शहरी क्षेत्र में विभिन्न जगह जाना हुआ। साथ ही हम खेड़ा और वारडोली के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में भी गए। वारडोली इलाके के कुछ आदिवासी गांव को भी हमने करीब से देखा। कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए। खेड़ा और वारडोली स्वतंत्रता आंदोलन के उन चर्चित गाँवों में से रहे हैं, जो भारतीय इतिहास में किसान आंदोलन के लिए जाने जाते हैं। खेड़ा में आज से एक सौ वर्ष पूर्व सन् 1918 में बहुचर्चित किसान आंदोलन हुआ था। इस आंदोलन का नेतृत्व स्वयं गांधीजी ने किया था। वहीं वारडोली में वर्ष 1928 में सरदार पटेल के नेतृत्व में किसानों का चर्चित आन्दोलन हुआ था। बताया जाता है कि यहीं के लोगों ने उन्हें सरदार की उपाधि भी दी थी। फिलहाल हम यहाँ खेड़ा जिले के एक गाँव की स्थिति के बारे में यहाँ चर्चा कर रहे हैं।  

भयानक जातिवाद कायम है गुजरात के गाँवों में :  
खेड़ा के गांवों में भयावह जातिवाद से हम सभी रु-ब-रु हुए। प्रथम दृष्टया इस किस्म का जातिवाद देश के दूसरे हिस्से में शायद ही देखा जा सकता है। जब छात्र-छात्राएं खेड़ा के मातर तालुके के एक गांव के जनजीवन के अध्ययन के क्रम में ग्रामवासियों के घरों में गए तो लगभग सभी विद्यार्थियों से उनकी जाति जरुर पूछी गई। पहली मुलाक़ात में कैसे कोई किसी की जाति पूछ सकता है, यह हम सबको हैरान करने वाली बात थी। जाहिर है ग्रामीणों का रिस्पॉन्स भी जाति से प्रभावित था। लगभग 450 परिवार वाले इस खड़ियालपुरा नामक गांव में 1600 के करीब मतदाता हैं। इससे अंदाजा लगता है कि गांव की कुल आबादी 2500 के करीब रही होगी। इस गांव में गुजरात की दो भूस्वामी जाति पटेल व ठाकोर (क्षत्रिय) जाति का वर्चस्व है। संख्या के मामले में तीसरे नम्बर पर तड़पदा जाति है, यह कुशवाहा-कोइरी जाति से मेल खाती हुई जाति है। यह खेतिहर जाति है किंतु इनमें से ज्यादातर लोग बेजमीन हैं और पटेलों व ठाकोरों के खेतों में मजदूरी करते हैं। गांव की ज्यादातर जमीनें पटेल व ठाकोर जाति के पास ही है। इन जातियों में भी भूमि का वितरण एक समान नहीं है। गांव में 30 के आसपास मुस्लिम परिवार भी हैं, जो कई पीढ़ियों से वहां रहते आ रहे हैं। इन तीस परिवारों में से तकरीबन दस परिवारों को एक-डेढ़ बीघा करके जमीनें हैं, बाकी परिवार भूमिहीन हैं। गांव में एक दलित परिवार भी कई पीढ़ियों से रहता आ रहा है। 

सम्भवतः गांव की साफ-सफाई व मरे हुए जानवरों आदि को फेंकने की जरूरतों की पूर्ति करने हेतु ही उसे बसाया गया हो। वह परिवार आज भी भूमिहीन है और सफाई का काम करता है। दो भाइयों में एक भाई अहमदाबाद में सफाई का काम करता है और वहीं अपने परिवार के साथ रहता है जबकि दूसरा भाई अपने बीबी-बच्चों के साथ गांव में ही रहता है। गांव के बड़े भूस्वामियों के मकान और दरवाजे आज भी पुराने किस्म की जमींदारी ठाठ-बाट की याद ताजा कराते हैं।
गांव में आधा दर्जन के करीब छोटे-बड़े मंदिर हैं, जो हिन्दू देवी-देवताओं के हैं। गांव के शुरू में एक भव्य काली, शिव और पार्वती का मंदिर है, जिसे पटेलों व ठाकोर जाति के लोगों ने बनवाया है। इसके अलावा योगिनी माता का भी एक मंदिर है। दुर्गा पूजा का आयोजन जहां पटेल जाति के लोग बढ़-चढ़कर करते हैं वहीं दीपावली का आयोजन ठाकोर जाति के लोग। दोनों एक-दूसरे के आयोजनों से दूरी भी बनाए रहते हैं। मंदिरों में अलग-अलग जातियां एक साथ पूजा करने नहीं जाते। मुस्लिम टोले में हाल ही में एक मस्जिद बना है। ग्रामीणों के साथ सामान्य बातचीत से ही गांव में जातिगत ऊंच-नीच और आपसी अंतर्विरोध का आसानी से पता चल जाता है। पटेल ठाकोरों को पसंद नहीं करते तो ठाकोर भी पटेलों को पसंद नहीं करते।

गाँव की कृषि :
जब हम गांव गए थे, उस वक्त खेतों में धान की शानदार फसल लहलहा रही थी। कुछ खेतों में धान की फसल पक चुकी थी और कुछ में उसकी कटाई व तैयारी का काम चल रहा था। धान की कटाई का काम पुराने परम्परागत तरीके से ही चल रहा था, उसके लिए आधुनिक यंत्रों के बजाय मजदूरों के जरिये ही पूरी कटाई व डंगाई का काम चल रहा था। पानी की पर्याप्त उपलब्धता थी, केनाल से भी खेतों की सिंचाई होती है और बड़े भूस्वामियों के पास खेतों के पटवन हेतु अपना खुद का बोरिंग भी है। जिन छोटे किसानों के पास अपना बोरिंग नहीं है, वे पड़ोस के बड़े किसान के बोरिंग से पानी खरीदकर अपने खेतों की सिंचाई करते हैं। गांव के ज्यादातर बड़े किसान अपनी खेती ठेके पर दे देते हैं। ठेके पर खेती करने वाले एक किसान ने हमें बताया कि एक बीघा जमीन के बदले भूस्वामी को सालाना तीस हजार रुपए का भुगतान करना पड़ता है। किसान गाय-बैल व भैंस-बकरी आदि भी पालते हैं और उसके मल-मूत्र को खेतों में डालते हैं।


वे रासायनिक खाद व कीटनाशक का भी इस्तेमाल करते हैं। धान के साथ-साथ गेंहू, ज्वार, अरहर व शाक-सब्जी भी भरपूर मात्रा में उगाते हैं। किसान उत्पादित फसल को मातर, खेड़ा से लेकर अहमदाबाद तक जाकर बेचते हैं। देश के अन्य किसानों की भांति यहां के किसानों की भी शिकायत थी कि उन्हें उत्पादित फसल का वाजिब दाम नहीं मिलता है। गांव के भूमिहीन परिवारों के स्त्री-पुरुष खेत मजदूरी करते हैं और गुजरात के अन्य हिस्सों व बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान व मध्य प्रदेश से आए मजदूरों से खेती का काम कराया जाता है। हमें वहां गुजरात के ही गोधरा तथा बिहार व यूपी के मजदूर धान की कटाई में लगे हुए मिले। मजदूरों को 200 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी दी जाती है।

शिक्षा की स्थिति :
गांव में शिक्षा की हालत अत्यंत ही चिंताजनक है। वहां आठवीं तक का एक स्कूल है। उसके बाद बच्चों को यहाँ से कोई चार-पाँच किमी दूर मातर तालुका पढ़ने जाना पड़ता है। और उससे आगे की पढ़ाई के लिए 25 किमी दूर खेड़ा जाने का विकल्प मौजूद है। इतनी आबादी वाले गांव में मात्र आठवीं तक के स्कूल का होना गुजरात की शिक्षा की स्थिति की पोल खोल देता है। लोग अपने बच्चे को आगे पढ़ने भेजना भी चाहें तो सबके पास रोज के यातायात का खर्च उठाने की क्षमता नहीं है। सरकारी बस की भी गाँव तक पहुँच नहीं है। ऐसी सूरत में ज्यादातर लोग उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। इस कारण भी गांव में शिक्षा को लेकर गहरी उदासीनता है। मैट्रिक-इंटरमीडिएट से ज्यादा पढ़ने वालों की तादाद नाम मात्र ही है। पटेल जाति तुलनात्मक तौर पर अन्य जातियों के मुकाबले ज्यादा शिक्षित है। क्योंकि ये आर्थिक तौर पर भी अन्य के मुकाबले सबल हैं। बालिका शिक्षा की स्थिति काफी चिंताजनक है। नई पीढ़ी की पढ़ाई-लिखाई को लेकर न तो सरकार की ही कोई चिंता है और न ही समाज के भीतर ही कोई बेचैनी। यह स्थिति कमोबेश गुजरात के सभी गांवों की है। उच्च शिक्षा को लेकर पूरे गुजराती समाज में भयानक उदासीनता देखी जा सकती है। शिक्षा विहीन ग्रामीण विकास के मॉडल का आप यहां के गांवों में दर्शन कर सकते हैं। इसके विपरीत अगर आप महाराष्ट्र के गांवों में जाएंगे तो वहां आपको शिक्षा की जबरदस्त भूख दिखाई देगी।

खुले में शौच :  
इस गांव में आज भी बड़े पैमाने पर लोग खुले में शौच करने जाते हैं। गुजरात से आने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे देश को स्वच्छता का पाठ पढ़ाते फिर रहे हैं, जबकि उनके गृह राज्य के गांवों की यह स्थिति बनी हुई है। जहां वे लगभग दो दशक तक मुख्यमंत्री भी रहे हैं और आज भी उन्हीं की पार्टी भाजपा की वहां सरकार चल रही है। 

गांव के मुख्य मार्ग के किनारे सड़क के दोनों किनारे पखाने की दुर्गंध आने-जाने वालों को नांक पर हाथ रखने के लिए विवश कर देता है। गांव के सरपंच से इस मुद्दे पर जब हमारे विद्यार्थियों ने बात की तो उन्होंने दो टूक कहा कि 'यह गांव है और गांव में ऐसा ही चलता है। पुराने लोग शौचालय के बजाय खुले में ही शौच जाना पसंद करते हैं।' सरकारी योजना के तहत गांव में कुल 60 शौचालय जरूर बनाए गए हैं।

आतिथ्य व आत्मीयता :
हालांकि गांव में हमें कुछ दूसरे अनुभव भी हुए। एमफिल के तीन छात्रों के साथ मैंने भी गांव का एक चक्कर लगाया। एक घर के बाहर एक अधेड़वय महिला मिट्टी के चूल्हे में लकड़ी जलाकर ज्वार की रोटी सेंक रही थी। खास बात यह थी कि मिट्टी के तवे में रोटियां सेंकी जा रही थी। हम थोड़ा ठहरकर देखने लगे थे। कुछ सेकेंड में ही महिला ने मुस्कुराते हुए गुजराती में कहा कि 'खाओगे'! वहां के रहन-सहन व खान-पान का करीब से अनुभव करने के खातिर हम सबने भी 'हाँ' कह दिया और चूल्हे के समीप बिछे खाट पर बैठने लगे। इतने में एक बूढ़ी महिला घर के अंदर से बाहर आई और रोटी बना रही महिला से गुजराती में कुछ बात करते हुए वापस घर के अंदर दाखिल हुई और हमें घर के अंदर आने को कहने लगी। उनके आग्रह पर हम घर के अंदर गए। घर अत्यंत ही साधारण किन्तु काफी साफ-सुथरा था। दो कमरे वाले उनके घर का छत और फर्श दोनों पक्की था। हम चारों के बैठने के लिए पर्याप्त कुर्सी नहीं थी, एक कुर्सी पास में जरूर पड़ी थी और उसके बगल में एक खाट बिछी हुई थी। हमलोग उन्हें असमंजस में डाले बगैर फर्श पर बैठ गए। 

इतने में घर का 40 वर्षीय पुरुष सदस्य एक आधे लीटर के बोतल में पास के किसी घर से फ्रीज का ठंडा पानी लेकर आ गए। तब तक वह बूढ़ी महिला चार ग्लास व चार थाली लेकर आ गई थी। सब कुछ इतना झटपट हो रहा था कि हम उनके आतिथ्य व आत्मीयता से भाव विभोर हो रहे थे। इतने में दो कटोरे में बेसन की गाढ़ी करी लेकर वह पुरुष आया और उसके बाद वह बूढ़ी महिला भी दो और कटोरे में वही भरकर ले आई। हम सभी मना करते रहे कि हमलोग नास्ता करके आए हैं, केवल थोड़ा-थोड़ा चखेंगे। किन्तु वे कहती रहीं कि पेट भरकर खाओ! फिर ज्वार की एक-एक गर्म रोटियां हमारी थाली में उसी बूढ़ी महिला ने डाल दिया। लकड़ी की आग पर मिट्टी के बर्तन में पकाई गई एक-एक रोटी खाने के बाद वह दूसरा रोटी लेने की जिद्द करने लगी। रोटी और करी काफी स्वादिष्ट बनी थी, किन्तु हमलोग उनपर ज्यादा बोझ डालना नहीं चाहते थे। सो हमने और लेने से मना कर दिया, किन्तु उन्होंने जबरन दो और रोटियां हमारी थाली में डाल दी। उसे बांटकर हम चारों ने खाया। हम खा ही रहे थे कि वह बूढ़ी महिला एक कांच के बड़े बोतल को लेकर आई और उसे खोलकर उसमें से कुछ गोल-गोल टाइप चीज निकालकर हमारी तरफ वात्सल्य पूर्ण तरीके से बढ़ा दिया। फिर जब हमने उसे हाथ में लेकर देखा तो वह आंवले का नमकीन अचार था। किंतु अचार अभी बनकर तैयार नहीं हुआ था, शायद उसे एक-दो रोज पूर्व ही निम्बू के रस और नमक में डाला गया होगा। 

बावजूद इसके उनके स्नेह को देखते हुए हमने उसे खा लिया। जो न खा सके उन्होंने नजर बचाकर उसे पानी से धुलकर अपनी जेब में रख लिया, ताकि उनके स्नेह का अपमान न हो, उन्हें बुरा न लगे। खाने के बाद हमने उन सबों का शुक्रिया अदा किया और आगे बढ़ चले। उनके इस आतिथ्य व आत्मीयता ने हमें भारतीय गांवों के आतिथ्य भाव की याद ताजा करा दी। अहम बात यह कि इस परिवार ने न तो हमारी जाति ही पूछी और न ही धर्म। वैसे भी भूख और रोटी के बीच किसी जाति-धर्म का मतलब भी नहीं होता।

इस गांव में एक दर्ज करने वाली बात खुद हमने और हमारे विद्यार्थियों ने महसूस किया कि गांव के साधारण परिवारों ने जहां हम सबको प्रेम व स्नेह भरी नजरों से देखा और उसी जीवंतता के साथ हम सबों से मिले-जुले। वहीं गांव के बड़े भूस्वामियों के चेहरे पर हमारे प्रति नफरत का भाव आसानी से पढ़ा जा सकता था। वे सीधे मुंह हमसे बात करने तक को तैयार नहीं थे। गांव के असमान विकास के बीच व्यवहार की यह असमानता समाज के विकास की दिशा को ही रेखांकित करता है।
(क्रमशः अगले किस्त में जारी...) 
डॉ. मुकेश कुमार 
फोटो आभार- प्रेरित बथारी
लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र 
 के महात्मा गांधी फ्यूजी गुरुजी समाज कार्य केंद्र में अतिथि शिक्षक 

Wednesday 10 October 2018

#एक_घटना_जिसने_दिमाग_में_सवालों_का_सैलाब_ला_दिया

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राजस्थान के अलवर जिला मुख्यालय से मात्र 14 किलोमीटर की दूरी पर रामगढ़ रोड MIA के पास रहने वाले तमाम लोग दूर से देखने पर आपको वैसे ही दिखाई देते हैं जैसे आमलोग दिखते हैं। पर उनके पास जाते ही या कहें कि सड़क से गाड़ी उतारते ही आपको एक अलग दुनिया का एहसास होने लगेगा। अब सोचने वाली बात यह है कि आखिर ऐसा क्या है वहां कि सड़क से उतरते ही वह जगह अलग लगने लगती है।
कई बार आप ऐसी जगह पहुँच जाते हैं जहाँ आपको सबसे अधिक असहज मासूस होने लगता है। और यह असहजता ही आपके कई सवालों के जवाब भी दे जाती है। वैसे ही वहाँ पहुँचने पर मेरे चेहरे के भाव भी बदल चुके थे। और यह हाव-भाव सिर्फ मेरे जेहन में उठने वाले सवालों की वजह से थे। इसलिए नहीं कि वहां के लोग क्या कर रहे थे, बल्कि इसलिए यह सब 21वीं सदी में भी कैसे हो रहा है! उसपर भी जहां एक तरफ सरकार 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा लगा रही है, वहीं ये बेटियां अपना जिस्म बेचने को मजबूर हैं। जबकि उस जगह पर जाने से पहले ही रास्ते में मुझे साथ चल रहे वीरेंद्र जी ने उस जगह के बारे में और वहाँ होने वाली प्रैक्टिस के बारे में बताया था। लेकिन किसी के मुंह से सुनने और प्रत्यक्ष के अनुभव कई बार अलग हो जाते हैं।

उसी तरह जब नेपाल की यात्रा पर गया था, उस वक्त के भी कुछ अनुभव ऐसे ही थे। पर वहां यह काम बिचौलिये कर रहे थे। इससे पहले मुझसे किसी महिला या एकदम बच्ची दिखने वाली लड़की ने एकदम सामने से एप्रोच नहीं किया था। बाकी मैं ऐसी तमाम जगहों पर गया हूँ। बल्कि इससे पहले मैंने अपना एम. फिल. का लघुशोध भी इसी तरह की एक कमन्युनिटी पर किया था। लेकिन वहाँ के अनुभव यहां के अनुभवों से बिल्कुल ही अलग थे। लेकिन वहां जाने पर इस किस्म का अजीब सा महसूस नहीं हो पाया था। बस सुबह चलते-चलते वहां के घर देखे और कुछ लोगों को सजते हुए भी, शायद एकदम सुबह का समय था, इसलिए ज्यादा लोग घर के बाहर नहीं आए थे। वापस आते समय थोड़ा वक्त गुजर चुका था और लगभग 12 बज चुके थे। आते समय हमने वहाँ पर कुछ देर रुकने का निर्णय लिया। वीरेंद्र जी के लिए तो सहज था क्योंकि वह एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, 'गरीब जन आंदोलन' संगठन के माध्यम से वे गरीब और इस तरह के तमाम लोगों की आवाज उठाते रहते आए हैं। लेकिन यह मेरे लिए एकदम ही कठिन था, बात करने में मैं ऐसा महसूस कर रहा था जैसे जीवन में पहली बार किसी लड़की से बात कर रहा हूँ, उसने बिना कुछ पूछे और जाने, सीधे सवाल किया जिसकी शायद मैं उस वक्त उम्मीद नहीं कर रहा था। सवाल एकदम सीधा और सटीक था, बैठना है क्या? (यहां बैठने का मतलब सेक्स करने से है) सवाल इतनी जल्दी में पूछा गया था कि मुझे पहली बार में समझ ही नहीं आया कि क्या जवाब दूं।

लेकिन दिमाग तो अपना काम कर ही रहा था। दूसरी बार पूछने और चारों तरफ से तमाम बुलाने की आ रही आवाजों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे लोग हम लोगों को भी अपना ग्राहक समझ कर बात कर रहे थे। एक बार की कीमत मात्र 200 ₹ है। जो चाहे पसंद कर लो, माँ या बेटी या फिर दोनों बारी-बारी, जिसमें आपकी फैन्ट्सी पूरी हो।

जितनी भी लड़कियाँ कुछ देर के अंतराल में वहां देख पाया उनकी उम्र लगभग 12 से लेकर 20 के बीच की रही होगी।

यह बात मैं किसी और जमाने या दूसरी दुनिया की नहीं कर रहा बल्कि मात्र अलवर मुख्यालय से 14 किलोमीटर बाहर निकलते ही एक दुनिया है। जहाँ यह सब होता आपको दिखाई दे सकता है। ऐसा नहीं है कि प्रशासन को इसके बारे में खबर नहीं है। वैसे मेरा नजरिया देखा जाए तो मैं इसे गलत नहीं मानता। लेकिन वह भी परिपक्व उम्र में बिना किसी मजबूरी के अपनी स्वेच्छा से अगर कोई यह पेशा चुनता है तो फिर मैं इसे बहुत नैतिक-अनैतिक के बहस के दायरे में इसे नहीं देखता। यह उनकी मर्जी। किन्तु छोटी-छोटी बच्चियों को इस पेशे में देखकर मेरी ज्यादा देर वहाँ रुकने की और उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हुई। मैं वहाँ से निकलते ही तमाम तरह के विचारों में खो गया। क्योंकि कोई समुदाय सेक्स की इस प्रैक्टिस में आखिर किन हालातों में उतरा होगा! उसके पीछे क्या ऐतिहासिक कारण हो सकते हैं? यह सब पुलिस- प्रशासन की नाक के नीचे आखिर कैसे हो रहा है! गरीबी-लाचारी, भुखमरी या फिर कोई और वजह ??? ऐसे कई सवाल मेरे संवेदनशील मन में अभी भी कौंध रहे हैं।

इन सारे सवालों के जवाब ढूंढने के लिए शायद दूसरी बार यहां आना पड़े...


naresh gautam
nareshgautam0071@gmail.com






घर और नौकरी को तरसते घुमंतू समुदाय के लोग

देश में विकास की जो सरकारी बयार चली वहाँ आज कोई भी न तो गरीब बचा है, न ही कोई भूखा है और न ही कोई बेरोजगार! देश के मुखिया ने घोषणा कर दी है कि देश में विकास आ गया है, मतलब आ गया है। जो इस सरकारी आदेश को नहीं माने वो देशद्रोही!
आजादी के बाद देश में कई योजनाएं गरीबी, भुखमरी, बेरोजारी को दूर करने के लिए आयी और कागजों पर सिमट कर दम तोड़ती हुई खतम हो गई। गांधी, विनोबा भी चले गए पर स्थितियाँ आज भी लगभग वैसी की वैसी ही हैं। आजादी के सत्तर साल गुजर गए। इस बीच कई सरकारें आयी और चली गई। उन्होंने बड़े-बड़े वादों की फुलझड़ियाँ छोड़ी पर देश में कुछ जातियों की हालत जैसी पहले थी वैसी ही आज भी बनी हुई है। न उनके रहने में कोई विशेष बदलाव आया है और न ही खान-पान व पहनावे-ओढावे में। विनोबा ने देश भर में भूदान चलाया, तमाम सरकारी योजनाओं ने भूमिहीन के लिए भूमि वितरण और आवंटन किया, लेकिन कुछ जातियों के लोग आज भी वैसे ही बेजमीन ही बने हुए हैं, जैसे पहले थे। जिन्हें थोड़ी-बहुत जमीन मिली भी उन्हें आज तक उनके कब्जे हासिल नहीं हो पाये। बहुत लोगों के पास तो अभी भी घर तक बनाने की भी जमीन नहीं है। देश में परिधान मंत्री ने घोषणा कर रखी है कि घर-घर में शौचालय हो लेकिन जिनके घर ही नहीं उनके लिए कुछ भी नहीं सोचा। 
राजस्थान के अलवर जिला मुख्यालय से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर दिल्ली हाइवे के किनारे एक बड़ी बस्ती है। जहाँ यह बस्ती बसी है वह जमीन संभवतः सरकारी है अथवा ऐसे ही खाली पड़ी किसी की निजी मिल्कियत। लेकिन नट जाति के लोगों के घर तो बदलते रहते हैं। जहाँ जैसा काम वहाँ वैसा घर!
नट जाति के ही हेमों की उम्र लगभग 35 साल होगी। वह अपने बारे में बताती है कि सरकार से हमलोगों ने और बहुत सारे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बात की। कई योजनाएं भी है लेकिन हमें आज तक कुछ भी नहीं मिला है। पहले हम लोगों के पास राशन कार्ड नहीं थे, आधार कार्ड भी नहीं था लेकिन अब ये सब तो हमारे पास मौजूद है, उसके बावजूद भी आज तक हमें सरकार ने देश का नागरिक ही नहीं समझा है। आगे वह बताती है कि हमारा गाँव हलेनायहीं नजदीक ही है। रहने को घर तो है लेकिन हमारे पास न तो खेती की जमीन है और न ही हमारे पास और कोई रोजगार ही है। उसके 3 बच्चे हैं। बड़ी लड़की व्याह के काबिल होने को है। इसलिए उन्हें घर- गाँव छोड़ जंगलों में रहना पड़ रहा है। वे रंज के साथ बताती हैं कि हमें जहाँ काम मिलता है वहाँ हम परिवार सहित चले जाते हैं। इसके अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है।
उसी बस्ती की अनीता(उम्र 50 वर्ष)बताती हैं कि मेरे पति शादियों में बैंड बजाने का काम करते हैं। लेकिन यह काम शादियों के सीजन भर ही चलता है। उसके बाद कोई काम नहीं रहता। उसके पेट के दो ऑपरेशन हो चुके हैं और वह अभी कोई काम नहीं कर सकने की स्थिति में है। अब पति को जो भी जहाँ भी काम मिलता है गुजारे के लिए वह करना पड़ता है। गाँव-घर में कहीं भी खेती नहीं है। तो सड़कों पर गुजारा करना पड़ता है। उसके 5 बच्चे हैं। जिसमें दो लड़कियाँ हैं। एक लड़की की शादी हो चुकी है बाकी अभी सबकी शादी करनी बाकी है। पति के पास कोई ठोस काम नहीं है। बच्चे भी अभी छोटे हैं। जैसे-तैसे एक टाइम का खाना सबको नसीब हो जाता है। बच्चों की पढ़ाई पर सवाल करने पर वह कहती है कि जब खाने को ठीक से नहीं है तो आगे क्या सोचें?

कृष्णा अपने बारे में बताती है कि 5 बच्चे मेरे भी हैं। मेरा जहाँ जन्म हुआ वह पिलवा नामक गाँव यहीं अलवर में ही है। लेकिन वहाँ कोई भी रोजगार हम लोगों के लिए नहीं था। इसलिए गाँव को छोड़ना मजबूरी हो गया। नहीं तो कौन अपना गाँव, जड़, जमीन छोड़ता है। हमारे पास खेती बिल्कुल भी नहीं है। खेती के लिए कई लोगों से मिली कुछ लोगों ने कुछ पैसे भी खा लिए लेकिन खेती की बात आज तक नहीं बन पाई, मैंने कई बार प्रयास किया। लेकिन आज तक कोई मामला नहीं बन पाया। पति कहाइन अन कहीं मजदूरी करके परिवार का पेट पालते हैं। मैं भी कुछ न कुछ करके थोड़ा- बहुत पैसा कमा लेती हूँ। बाकी जंगल अपने तो हैं ही। पुलिस ने डंडा मारा तो रातों-रात कहीं और झोपड़ियाँ बना लेते हैं। बस अब यही हमारी ज़िंदगी बन गई है।

ऐसी हजारों कहानियों से भरा पड़ा है अलवर के पास का क्षेत्र। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले हर परिवार की यही कहानी है। आजादी के सत्तर सालों में इन परिवारों तक आजादी की रौशनी नहीं पहुंच पाई। बावजूद इसके अगर देश के हुक्मरान कह रहे हैं कि देश का विकास हो गया तो मानना ही पड़ेगा न! अन्यथा देशद्रोही बनने का जोखिम उठाना पड़ेगा!

नरेश गौतम 
nareshgautam0071@gmail.com

Tuesday 19 June 2018

महाराष्ट्र: रेलवे को मजदूरों से काम नहीं रहा तो उजाड़ी जा रही उनकी बस्तियाँ

केंद्र-राज्य की सरकारों ने इस वक्त सफाई की मुहिम छेड़ रखी है। उसी मुहिम के तहत शहरों को भी साफ किया जा रहा। यह सफाई कूड़े-कचरे के ढेर मात्र की कम, बल्कि इंसानों की ज्यादा चल रही है। ऐसे इंसान जो झुग्गी-झोपड़ियों अथवा कहीं भी सड़क के किनारे गुजर-बसर करते हैं। जो गरीब हैं, जिनके पास घर नहीं है। काम नहीं है, मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपना और बाल-बच्चों का पेट पालते हैं। दिल्ली हो या मुंबई कहीं भी ऐसी झोपड़ियाँ आसानी से देखी जा सकती हैं। सवाल उठता है कि ये लोग आखिर कौन हैं? कहाँ से आते हैं? यह सवाल किसी भी व्यक्ति के दिमाग में आ सकता है।
संवेदनशील ढंग से अगर आप सोचेंगे तो शायद पता भी चल जाए कि ये वही लोग हैं, जो बाकी समाज के लिए घर की सफाई से लेकर सब्जी पहुँचाने तक के सभी काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर स्वीपर से लेकर वॉचमैन तक कोई भी हो सकता है। जिन्हें आज इंसानों की गंदगी ठहराया जा रहा है, जो शहरों में उगी है उसके लिए जिम्मेदार हमारी सरकारें ही है। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले ये लोग बे जमीन व बेरोजगारी के कारण पलायन करते हैं। लोगों के पास रोजगार नहीं होगा, उनके पास ज़मीनें नहीं होंगी तो वे मजबूरन रोजी-रोटी की तलाश में कहीं भी जायेंगे, कुछ भी करेंगे और कहीं भी रहने को मजबूर होंगे। गाँवों में सबके लिए काम तो बचा नहीं, शहर कहीं न कहीं कुछ तो काम दे ही देता है। हाल ही में रिलीज हुई 'काला' फिल्म में इसी मुद्दे को बहुत संजीदा तरीके से उठाने की कोशिश की गई है। पर हर बस्ती, झुग्गी में काला जैसा हीरो नहीं होता।

ऐसा ही महाराष्ट्र के भुसावल में हो रहा है। भुसावल की पहचान एक तो केले के उत्पादन से होती है, दूसरा रेलवे से। भुसावल का रेलवे यार्ड एशिया में सबसे बड़ा माना जाता है। भुसावल के आधे से अधिक लोग इसी यार्ड में काम करते हैं। आज जिनमें आधे से अधिक लोग ठेके पर मजदूरी करते हैं और यही मजदूर अपनी-अपनी झुग्गी-झोपड़ी बना कर वहाँ रहते आए हैं। अब यार्ड में निर्माण के बहुत सारे काम बंद कर दिए गए हैं। जो काम चल रहे हैं, वह भी ठेके पर प्राइवेट कंपनियां करा रही है। अब रेलवे को इन मजदूरों की जरूरत नहीं रह गई है। उन्हीं मजदूरों की ये तमाम बस्तियां यहाँ से बेरहमी से उजाड़ी जा रही है। इन परिवारों की तीन-चार पीढ़ियाँ यहां पर रहती आई हैं। अमानवीयता का आलम तो यह है कि पहले इनकी बिजली काटी, फिर पानी तक बंद कर दिया। और अब सारी नालियाँ और सिवर लाइनें तक बंद कर दी गई हैं। रेलवे अपनी तमाम कॉलोनियों को तोड़कर वहाँ नया निर्माण करना चाहती है। वहाँ बसे लगभग हजारों परिवार अब बेघर होने की कगार पर हैं।

अलिशान बी, उम्र 45 वर्ष,
हमें बताती हैं कि हमारे अब्बा पहले यहाँ रहने आए। हम लोग यहीं पैदा हुए और अब बूढ़े भी हो गए। अब्बा तो बहुत पहले ही गुजर गए थे। बड़ा परिवार था, इसलिए अब्बा हमलोगों के लिए एक छत तक न बनवा पाये। हम सबका पेट भरने में ही उनकी कमाई खतम हो जाती थी। मैं अपनी बूढ़ी माँ के साथ यहां रहती हूँ। गरीबी के कारण मेरी पढ़ाई भी नहीं हो पाई। कहीं काम भी नहीं मिलता। फुटपाथ पर कुछ समान वगैरह बेचकर अपना काम चलाती हूँ। कभी चप्पल, तो कभी बच्चों के खिलौने आदि बेच कर अपना और अपनी बूढ़ी बीमार मां का पेट भरती हूँ। अपना दर्द बताते हुए वे कहती हैं, शरीर पर सफ़ेद दाग होने की वजह से मेरी शादी नहीं हो पाई। इतने सालों से यहाँ रह रहे हैं बमुश्किल सर ढकने को एक छत बना पाई हूँ। अब उसे भी रेलवे के लोग तोड़ देंगे। अब हम कहाँ जाएं अपनी बूढ़ी माँ को लेकर! हम तो कहते हैं कि रेलवे हमारे लिए कहीं जमीन दे, अगर वो भी नहीं दे सकती तो कहीं से हमें लोन दिलवाए। या वो खुद पैसा दे ताकि हमलोग कहीं एक चारपाई भर की जमीन लेकर अपना आशियाना बसा सकें।

शकुंतला बस्ते, उम्र 60 वर्ष।
शकुंतला अपने घर में अकेली महिला है। शरीर जर्जर हो चुका है। न बच्चे हैं, न पति, पति बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कहीं चले गए। घर जैसा घर तो नहीं, बस सिर छुपाने को जमीन मात्र है। इनकी भी तीन पीढ़ियाँ यहीं गुजरी हैं। कोई काम नहीं है। घरों में बर्तन धोकर अपना गुजारा करती हैं। जमा पूंजी के नाम पर बस यही एक टूटी- फूटी झोपड़ी मात्र है। वह अपने बुढ़ापे के आखिरी दिनों में कहाँ जाए? वह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताती है कि 70 के आसपास यहाँ आए थे और यहीं के रह गए। जब तके हाथ- पाँव में दम था, मजदूरी करके अपना पेट पाला। अब बुढ़ापे में यह विपदा आन पड़ी। कहाँ जायेंगे? क्या करेंगे? जब तक हमलोगों की यहाँ रेलवे वालों को जरूरत थी तब तक तो कुछ नहीं कहा, लेकिन आज वह अपनी जमीन खाली कराना चाहता है।

शांता बाई, उम्र 80 वर्ष।
मनमाड से यहाँ आई थी। बताती हैं कि वहाँ पर हमारे पास जमीन नहीं थी, खेत भी नहीं थे। मजदूरी करने यहाँ आए। कुछ काम हम लोगों को यहाँ मिल जाता था। बच्चे बड़े हो गए, शादियाँ कर अलग हो गए। मैं अकेली जान बची हूँ। सरकारी महकमे के लोग हर दूसरे-तीसरे दिन यहाँ आकर घर खाली करने को कहते हैं। पानी-बिजली सब काट दिया। नालियाँ तक जाम कर दी गई हमारी। भगवान भी मुझे उठा नहीं लेता! जाने किस बात का बदला ले रहा है। अब यहीं पड़ोसी हमारे सब कुछ हैं। अलिशान बी हमेशा मेरी मदद करती आई है। यहाँ से कहाँ जाएं? कौन देखेगा मुझे? मोहल्ले के बच्चों के साथ अपना दिन काट लेती हूँ। यहाँ से जाने की बात सोच कर ही दिल घबरा जाता है। जाने क्या होगा? यहाँ के आमदार, खासदार सबसे हमलोग मिले, लेकिन ये सब भी वोट लेने के वक्त ही दिखाई देते हैं। अब यहाँ कोई दिखाई नहीं देता। न ही हमारे मसले पर कोई खड़ा होता दिखाई दे रहा है।
शेख फिरोज, उषा बाई, हालिम सिकंदर, देवीदास भगवान दास नागा, हिरन्ना येरल्लो, ओंकार शंकर वांगर, लता बाई गोपालराव जादव, खैरुन निशा, सुनीता, विद्या आदि हजारों की संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके पास जीने-रहने का इसके सिवा कोई जरिया नहीं है। जमीन नहीं, ठीक से रोजगार नहीं। बस यही एक ठिकाना है जो अब उजड़ने वाला है। भुसावल के ऐसे ही लगभग 5000 हजार परिवार उजड़ने वाले हैं, जिसमें चाँदमारी चाल, हद्दीवाली चाल, आगवली चाल, लिंपूस क़ल्ब, चालीस बांग्ला चाल।। इन सारी चालों में परिवारों की संख्या लगभग 5000 के ऊपर होगी।




NARESH GAUTAM & SANDESH UMALE