कहानी मेलघाट की...
एक तरफ सतपुड़ा के घने जंगल और दूसरी तरफ अमरावती से लेकर खंडवा तक के जंगलों के मेल से ही शायद इसका नाम मेलघाट पड़ा होगा। जो कुछ भी हो यह क्षेत्र बहुत सी घाटियों से घिरा हुआ है और अत्यंत ही मनमोहक दिखाई देता है। इन्हीं पहाड़ियों के बीच लाखों की संख्या में बसे हैं कोरकू और गोंड आदिवासी जिन्हें आज जंगलों से निकाल फेकने की मुहिम सत्ता और उसके प्रशासन ने तेज कर रखी है। आदिवासियों को उजाड़ने की इस प्रक्रिया का नाम दिया गया है विस्थापन।
विस्थापन एक ऐसा दर्द है जिसे बयाँ करना काफी कठिन है। जहाँ एक ओर तमाम लोग अपने पैतृक चीजों को बचाने के लिए लाखों- करोड़ों रुपए भी देने को तैयार रहते हैं वहाँ इन आदिवासियों को मात्र
10 लाख रुपया मुअवजा देकर अपनी पैतृक जमीन, अपना जंगल सब कुछ छोड़ने पर बाध्य किया जा रहा है। आम लोगों को यह 10 लाख रुपए की राशि बहुत अधिक दिखाई दे सकती है। लेकिन वास्तविक जीवन में यह राशि क्या वाकई बहुत ज्यादा हो सकती है! जहाँ से आप की जड़ें ही काटी जा रही हों! उन आदिवासियों की जड़ों की कीमत मात्र 10 लाख रुपए! जिन्हें यह रुपए अधिक दिखाई देते हैं, उनसे एक सवाल है कि आपकी जड़ों को यदि काट दिया जाए क्या आप पैसे के बल पर अपनी जड़ों को मजबूत करने में कामयाब हो सकते हैं? शायद जवाब यही होगा की नहीं। फिर भी नागरिक समाज को आदिवासियों के लिए निर्धारित यह राशि बहुत अधिक दिखाई देती है। ऐसे में यह कैसे सोचा जा सकता है कि मात्र इतनी मामूली सी रकम जो शायद कुछ महीनों का खर्च ही चला पाये मात्र से उनका पुनर्वास मुमकिन होगा। चलो मान भी लेते हैं कि आदिवासी परिवारों के लिए यह एक बड़ी राशि हो सकती है वह अपना घर दुबारा बसा लेंगे। लेकिन क्या वह अपने देवताओं और उन पेड़-पौधों को साथ में ले कर जा सकते हैं? या सरकार जो उनकी हितैषी बनने का ढोंग कर रही है, वह उनके साथ उन पेड़-पौधों, नदियों-नालों, पहाड़ों और मैदानों को साथ ले जा सकती है। अगर वह उन सबको साथ में विस्थापित करती है तो यह विस्थापन उन आदिवासियों को जरूर मंजूर होना चाहिए। पर ऐसा कतई नहीं होगा। मेलघाट में विस्थापन का यह खेल 1974 से शुरू हो गया था जो आज तक निरंतर बना हुआ है। 1980 के खत्म होते ही जंगल और आदिवासी के आपसी रिश्तों पर होने वाला असर साफ-साफ दिखने लगा। एक-एक करके उन्हें जंगली चीजों के इस्तेमाल से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया। उन्हें भी लगने लगा जंगल हमारा नहीं, पराया है।
10 लाख रुपया मुअवजा देकर अपनी पैतृक जमीन, अपना जंगल सब कुछ छोड़ने पर बाध्य किया जा रहा है। आम लोगों को यह 10 लाख रुपए की राशि बहुत अधिक दिखाई दे सकती है। लेकिन वास्तविक जीवन में यह राशि क्या वाकई बहुत ज्यादा हो सकती है! जहाँ से आप की जड़ें ही काटी जा रही हों! उन आदिवासियों की जड़ों की कीमत मात्र 10 लाख रुपए! जिन्हें यह रुपए अधिक दिखाई देते हैं, उनसे एक सवाल है कि आपकी जड़ों को यदि काट दिया जाए क्या आप पैसे के बल पर अपनी जड़ों को मजबूत करने में कामयाब हो सकते हैं? शायद जवाब यही होगा की नहीं। फिर भी नागरिक समाज को आदिवासियों के लिए निर्धारित यह राशि बहुत अधिक दिखाई देती है। ऐसे में यह कैसे सोचा जा सकता है कि मात्र इतनी मामूली सी रकम जो शायद कुछ महीनों का खर्च ही चला पाये मात्र से उनका पुनर्वास मुमकिन होगा। चलो मान भी लेते हैं कि आदिवासी परिवारों के लिए यह एक बड़ी राशि हो सकती है वह अपना घर दुबारा बसा लेंगे। लेकिन क्या वह अपने देवताओं और उन पेड़-पौधों को साथ में ले कर जा सकते हैं? या सरकार जो उनकी हितैषी बनने का ढोंग कर रही है, वह उनके साथ उन पेड़-पौधों, नदियों-नालों, पहाड़ों और मैदानों को साथ ले जा सकती है। अगर वह उन सबको साथ में विस्थापित करती है तो यह विस्थापन उन आदिवासियों को जरूर मंजूर होना चाहिए। पर ऐसा कतई नहीं होगा। मेलघाट में विस्थापन का यह खेल 1974 से शुरू हो गया था जो आज तक निरंतर बना हुआ है। 1980 के खत्म होते ही जंगल और आदिवासी के आपसी रिश्तों पर होने वाला असर साफ-साफ दिखने लगा। एक-एक करके उन्हें जंगली चीजों के इस्तेमाल से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया। उन्हें भी लगने लगा जंगल हमारा नहीं, पराया है।
इस परायेपन के अहसास के बीच उन पर जंगल खाली करने का दबाव डाला गया।`मेलघाट टाइगर रिजर्व´ से सबसे पहले तीन गांव कोहा, कुण्ड और बोरी के 1200 घरों को विस्थापित होना पड़ा था। पुनर्वास के तौर पर उन्हें यहां से करीब 120 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के ही अकोला जिले के अकोठ तहसील भेज दिया गया था। उन्हें जो जमीन मिली वह इस काबिल भी नहीं थी कि उनके जानवर तक वहाँ चर सकें। यही हाल अब भी है, सरकार उन्हें मात्र एक राशि देकर 16 गाँवों को अभी तक खाली करा चुकी है। जबकि अभी तक मात्र एक लाख रुपए का भी भुगतान उन्हें किया गया है। बाकी रकम कब उनके हाथ आएगी और कैसे यह उन्हें मिलेगा यह तो छोड़िए आला अधिकारियों तक को इसके बारे में नहीं पता है। 2006 के सर्वे का नोटिस उनपर लागू किया जा रहा है जबकि अब हजारों परिवारों में तमाम बच्चे जवान हो चुके हैं और अपनी अलग गृहस्थी बसा चुके हैं। जिन गाँवों की जनसंख्या 200 परिवार हुआ करती थी आज वह बढ़ कर 250 के आसपास पहुंच चुकी है। उन बढ़े हुए लोगों का क्या होगा? सैकड़ों ऐसे परिवार हैं जिनके पास आज भी जमीन का मालिकाना हक नहीं है। क्योंकि उन्हें कभी इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। 19 और गाँवों को खाली कराने की मुहिम तेजी से चल रही है। जिन गाँवों को अभी तक जंगल के बाहर का रास्ता दिखाया गया, सरकार ने उनके लिए कोई भी जमीन सुनिश्चित नहीं की और न ही खेती। 10 लाख रुपए का मुआवजा क्या उनके जल, जंगल, और जमीन की भरपाई कर सकता है ?....
Naresh Gautam
nareshgautam0071@gmail.com