Friday 20 October 2017

पीड़ा का महासमंदर है इनकी जिंदगी...

आज हम आधुनिकता -उत्तर आधुनिकता अथवा कोई अन्य चाहे जिस कालखंड में जी रहे हों, एक चीज बिलकुल भी नहीं बदली है। वह है माँ-बाप की अपनी संतानों के प्रति ममता, प्यार और दुलार। आज भी दुनिया में ज़्यादातर माँ-बाप के लिए अपनी औलाद से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं है। खासकर एक माँ के लिए तो उसकी औलाद चाहे जैसा भी हो- अपाहिज हो या अपंग हो, जैसा भी हो, वह उसकी आँखों का तारा ही होता है। तमाम कष्ट झेलते हुए भी हमेशा वह उसे अपने पास, अपनी आँचल की छाँह में ही रखना चाहती है। कभी उसके प्रेम में ईर्ष्या नहीं आती, पर क्या औलादें भी अपने माँ-बाप के लिए यही सब कुछ कर पाती हैं? आइये, हम आपको महाराष्ट्र के वर्धा स्थित एक कुष्ठ रोग आश्रम मे रह रहे ऐसे ही कुछ बेबस-लाचार, घर-परिवार व समाज से दुत्कार दिये गए लोगों से मिलाते हैं।


इससे पहले इस आश्रम का कुछ सामान्य परिचय जान लेना ठीक रहेगा। जैसा कि हम आपको पूर्व में ही बता चुके हैं कि यह आश्रम महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित है। कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा के लिए बनाया गया यह भारत का पहला चिकित्सा केंद्र है। वर्धा के दत्तपुर में स्थित इस आश्रम को आज मनोहर धाम नाम से जाना जाता है। मनोहरलाल दीवान नामक एक स्थानीय व्यक्ति ने इसकी स्थापना गांधी-विनोबा की प्रेरणा से आजादी के एक दशक पूर्व 1936 में की थी। कहा जाता है कि एक दिन वर्धा में घूमते हुए मनोहरलाल दीवान ने एक कुष्ठ रोगी को नाले का पानी पीते हुए देखा। इससे वे काफी आहत हुए और उन्होंने विनोबा जी से इस घटना का उल्लेख किया। इस पर विनोबा जी ने उनसे कहा कि स्थिति तो चिंताजनक है, किन्तु इन रोगियों के लिए करेगा कौन? विनोबा के इस प्रश्न ने मनोहरलाल के मन में दृढ़ संकल्प पैदा कर दिया, जिसके बाद इस आश्रम की स्थापना हुई। हालांकि इससे पूर्व गांधी जी सेवाग्राम आश्रम में परचुरे शास्त्री नामक कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति को रखकर खुद ही उनकी सेवा-सुश्रुषा शुरू कर दी थी। गांधीजी के इस कार्य ने भी मनोहरलाल को काफी प्रेरणा दी थी। उस वक्त कुष्ठ रोगियों की हालत अत्यंत ही दयनीय थी, पहले तो इस रोग को छुपाया जाता और जब यह बढ़ जाता तो रोगी को परिवार-समाज से अपनी मौत मरने के लिए बाहर निकाल दिया जाता था।

  
आज छब्बू ताई की उम्र 62 वर्ष के आसपास है। वह खानदेश (महाराष्ट्र) की रहने वाली है। 15 साल की उम्र में उसका विवाह हो गया। और 20 साल की होने तक उनके 2 बच्चे भी हो गए। दूसरे बच्चे के समय ही वह बीमार पड़ी, प्राथमिक उपचार के दरम्यान उसे डाक्टर ने बीमारी के बारे में बताया। उसमें कुष्ठ रोग के लक्षण पाए गए थे। उस वक्त सभी जगहों पर इस बीमारी का इलाज नहीं हुआ करता था। उसके ऊपर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। किसी ने उनके पति को महाराष्ट्र के वर्धा स्थित कुष्ठ रोग के ईलाज के लिए बने आश्रम के बारे में बताया। पति ने उपचार के लिए उन्हें आश्रम पहुंचा दिया। उसी उम्र में वह यहाँ इलाज के लिए आ गई। आज यहाँ रहते हुए उन्हें लगभग 42 वर्ष बीत चुके हैं। ईलाज के कुछ ही दिन बाद वह पूरी तरह से ठीक हो गई थी, किन्तु इस बीमारी को लेकर समाज में व्याप्त भ्रांतियों की वजह से उसकी घर वापसी नहीं हो पाई। उनके दो बेटे, दोनों आज अच्छी जगहों पर हैं। थोड़ा सोचकर वह अपने परिवार के बारे मे बताती है कि एक बेटा बैंक में और छोटा बेटा जहाज उड़ाता है। पति अब इस दुनिया में नहीं रहे, दो वर्ष पूर्व ही उनकी मौत हो गई। वह आगे बताती है कि बेटे यहाँ नहीं आते हैं, मैं ही चली जाती हूँ। बेटे आएँगे तो वह अकेले आएँगे, मैं जाती हूँ तो सबसे मिल लेती हूँ। पर अपने घर में ज्यादा दिन नहीं रुकती। आज भी उन्हें डर है कि कहीं यह बीमारी उनके नाती-नतकुरों को न हो जाए। अपने घर की बात करते समय उनके चेहरे के हाव-भाव काफी आसानी से पढ़े जा सकते हैं। चरम अवसाद के चार दशक गुजार चुकने के बाद भी छब्बू ताई को किसी से कोई शिकायत नहीं है। आश्रम ही आज उसका सबकुछ है। पहले वह चरखा चलाती थी, किन्तु अब आश्रम में चरखा बंद हो चुका है। आश्रम के दूसरे कामों में हाथ बँटाती है।

इन चार दशकों ने उसे काफी कुछ सिखा दिया है। अब उन्हें अपना घर अच्छा नहीं लगता। पर बच्चों के लिए उनका आज भी वही प्रेम दिखाई देता है। यहाँ रहते हुए उन्होंने खादी का काम करना सिख लिया है। कुछ-कुछ काम वह खेती-बाड़ी का भी करती हैं। ऐसी ही कहानी यहाँ आने वाले उन सैकड़ों लोगों (मरीजों) की है जो कुष्ट रोग से पीड़ित थे अथवा आज भी हैं। आज यह आश्रम (मनोहर धाम) इन सैकड़ों लोगों का घर-परिवार और अस्पताल के साथ उनकी दुनिया भी है। 

हमारी मुलाक़ात रामकृष्ण वाघाड़े से हुई। 71 वर्ष के रामकृष्ण से मिलने वाला हर व्यक्ति, उससे बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकता है। नॉन स्टॉप बोलते जाने वाले इस व्यक्ति के पास आश्रम की इतनी खट्टी-मीठी यादें हैं कि आपके पास सुनने का वक्त कम पड़ जाएगा।
उनके चेहरे पर आज भी वही उत्साह दिखाई देता है, जो कभी जवानी के दिनों मे हुआ करता था। हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी भाषाओं के साथ कई क्षेत्रीय बोलियों पर अपनी पकड़ रखने वाले रामकृष्ण ने 40 वर्षों तक कुष्ठ निवारण साहित्य का प्रचार किया, कई बार इसी सिलसिले में विदेश यात्राएं भी की। आज वह अपनी पत्नी के साथ इसी आश्रम में रहते हैं। पास के गाँव बोरधरन में ही उनका अपना घर था। आज भी कभी-कभी वह घर जाते हैं। घर की बात करते ही उनके चेहरे पर उभर आने वाली दर्द की लकीरों को पढ़ा जा सकता है। उनके बच्चे भी उन्हें अब घर में नहीं रखना चाहते।
रामकृष्ण का एक पैर नहीं है, अल्सर हो जाने की वजह से कैंसर के खतरे से बचने के लिए उन्हें अपना पैर कटाना पड़ा। और दूसरा पैर कुष्ठ रोग से कभी पीड़ित हुआ करता था। पत्नी को भी हाथों में कभी यह बीमारी हुआ करती थी।
रामकृष्ण की कहानी अन्य लोगों से इसलिए अलग हो जाती है क्योंकि उन्होंने यह जानते हुए भी (शांताबाई) से विवाह किया कि उन्हें यह रोग है। शांताबाई भी आश्रम में ही रहती है। एक बेटा है जो आज अपनी खुशहाल जिंदगी जी रहा है। पर आज भी उन्हें यह डर बना हुआ है कि कहीं उनके बच्चों को यह बीमारी हमारी वजह से न हो जाए। शांताबाई अपने घर-परिवार की तस्वीरें दिखाते हुए अपने बचपन के दिनों के साथ ही बच्चों की तस्वीरें देखते हुए जैसे कहीं खो सी जाती है। घर और बच्चों की यादों की टीस अनायास उसके चेहरे पर दिखाई देने लगते हैं। लेकिन वह अपने को यहाँ रहते हुए ज्यादा खुश दिखाने की कोशिश करती है। यह भी उनका एक परिवार है। जहाँ उनके मित्र, यार, सखी सहेली सभी हैं। संस्था के साथ बहुत पहले से काम करते आए हैं इसलिए लोग उनका सम्मान भी करते हैं। एक तरह से दोनों पति-पत्नी इस कुष्ठ रोग पर काम करने वाली इस संस्था का अलिखित जिंदा इतिहास ही हैं।
दिनकर बामनराव पाटिल
रामकृष्ण ने ही हमारी मुलाक़ात आश्रम में रह रहे वयोवृद्ध दिनकर बामनराव पाटिल से कराई। उनकी उम्र 84 वर्ष के करीब है। यह व्यक्ति संस्था का जीता-जागता इनसाइक्लोपीडिया है। दिनकर जलगाँव के रहने वाले हैं। बड़ा भरा-पूरा परिवार है। पहले परिवार के साथ ही वह रहते थे। इसी आश्रम के अस्पताल में वे पहले नॉन मेडिकल असिसटेंट के पद पर कार्यरत थे। 1995 में सेवा आश्रम से सेवानिवृत हुए। संस्था में अपने दिनों के कार्यकाल को याद करते हुए कहते हैं। 
मनोहरलाल दीवान

यह अस्पताल भारत का पहला अस्पताल था। जहाँ कुष्ठ रोगियों का इलाज किया जाता था। कभी यहाँ 24 घंटे डॉक्टर्स की टीम हुआ करती थी। देश के बड़े-बड़े डॉक्टर अपनी सेवाएं यहाँ दिया करते थे। वे दुख व्यक्त करते हुए कहते हैं कि लेकिन आज यह संस्था जर्जर अवस्था में है। कभी इन्दिरा गांधी से लेकर बड़े-बड़े नेता यहाँ विजिट किया करते थे। उस वक्त मरीजों की संख्या भी यहाँ काफी थी, लगभग 1300 के आस-पास मरीज हुआ करते थे। एक तरह से मरीजों का घटना यह भी दर्शाता है कि अब यह रोग पहले से कम होता जा रहा है। पर ऐसा नहीं है। आज भी तमाम केस देखने को मिलते हैं। पर यहाँ भी तमाम तरह की खामियां व्याप्त हो चुकी हैं। आश्रम में अब वह पहले जैसी बात नहीं रही। अब यहाँ सिर्फ 105 मरीज ही रह गए हैं। यही वो संस्था है, जहाँ से प्रेरित होकर बाबा आमटे ने अपनी संस्था आनंदवन (चंद्रपुर) में स्थापित की थी। यहाँ बाबा आमटे ने विधिवत ट्रेनिंग भी ली थी। वह अपने दिनों को याद करते हुए अवसाद से भर उठते हैं। डायबिटीज़ की बीमारी की वजह से आज उनकी यादास्त उतनी दुरुस्त नहीं रह गई है। एक सड़क दुर्घटना में उनके पैर में काफी चोट आ गई थी। शुगर के मरीज होने के कारण उनका ईलाज ठीक से नहीं हो पाया। जिसके चलते हालत बहुत खराब हो गई। तब उन्हें यहाँ लाया गया। आज वह थोड़ा-बहुत चल-फिर सकते हैं। संस्था आने वाले दिनों में उनके कार्यों को लेकर एक किताब भी लिखना चाहती है। पर घर-परिवार के लोग अब उन्हें अपने घर नहीं ले जाते। वह यहाँ पर नॉन मेडिकल असिस्टेंट हुआ करते थे। इसकी ट्रेनिंग उन्होंने चेन्नई के एक बड़ी ऑर्गेनाइजेशन से ली थी। वह बताते हैं कि किसी जमाने में यहाँ (मनोहर धाम आश्रम) का ऑपरेशन थियेटर देश के तमाम अस्पतालों से समृद्ध था। लेकिन आज वह भी मेरे बूढ़े शरीर की तरह ही जर्जर हो चुका है। अब न लोगों में सेवा की वह भावना बची है। और न ही सरकार में। देश में सफाई और स्वच्छता के बारे मे वह कहते हैं कि आज सरकार उसके प्रचार को लेकर बड़े-बड़े विज्ञापन कर रही है, कभी हमने इसके प्रयोग गाँव-गाँव जाकर खुद किए हैं।

आज वह खुद अपनी बीमारी के साथ कुष्ठ रोग से लड़ रहे हैं। लेकिन आज भी उनके अंदर वही जोश और आँखों में चमक को देखा जा सकता है। शायद आज भी वह ठीक से चलने-फिरने के लायक होते तो वह बाकी रोगियों की सेवा के लिए कार्य कर रहे होते।
आज भी लोग इस बीमारी से डरते हैं। यह कोई लाईलाज बीमारी नहीं है। इसका ईलाज आज पूर्ण रूप से संभव है। बहुत से लोग आश्रम देखने आते हैं। आने-जाने वाले तमाम मरीजों से बात करते हैं। पर उन्हें भी डर रहता है कि कहीं उन्हें भी यह रोग न हो जाए। इस बीमारी को लेकर आम लोगों की धारणा में भी कोई गुणात्मक बदलाव नहीं हो पाया है। आज भी लोग इसे पूर्व जन्म के पाप-पुण्य से जोड़कर देखते हैं, जो अत्यंत ही अवैज्ञानिक धारणा है। 
कुष्ठ रोग से खराब हुए पैर
हमें इस बीमारी को दूसरी अन्य बीमारी की तरह ही देखना चाहिए और इसके पीड़ितों को घर-परिवार-समाज से बेदखल करने के बजाय उसका समुचित ईलाज कराया जाना चाहिए। यह कोई संक्रामक बीमारी भी नहीं है। अगर आपके आस-पास इस रोग से पीड़ित कोई मरीज हो तो, उससे दूरी बनाने के बजाय उसको स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचाने में मदद करें। कुष्ठ रोग छुपाने वाली बीमारी नहीं है। आज इसका सम्पूर्ण ईलाज मुमकिन है। अज्ञानता के चलते लोग इसे प्राइमरी स्टेज में छुपाने की कोशिश करते हुए रोग को बढ़ाते ही हैं। इस गलत धारणा को बदल डालने की जरूरत है। आइये कुष्ठ रोगियों के प्रति समाज की भ्रांत धारणा को जड़-मूल से मिटाएँ!                                                     
कुष्ठ रोग से पीड़ित इसी समाज का अंग हैं और उन्हें परिवार-समाज के तिरष्कार के स्थान पर प्रेम और चिकित्सा की ज्यादा जरूरत है।

वार्ड में खाना खाते हुऐ बुजुर्ग

वार्ता के दौरान डॉ मुकेश कुमार और दिनकर बामनराव पाटिल 

रोगियों के वार्ड में भोजन ले जाते हुए


©Naresh gautam
nareshgautam0071@gmail.com




1 comment:

  1. बहुत भावपूर्ण आलेख है

    ReplyDelete