Saturday 21 October 2017

आखिर कैसे लुप्त हुए चरवाहे!

जिन लोगों ने अपना जीवन ग्रामीण क्षेत्रों में बिताया है, उन्हें बखूबी मालूम होगा कि चरवाहे क्या होते हैं। और अपनी माटी से लगाव रखने वाले, ग्रामीण जीवन से रिश्ता रखने वाले उन तमाम लोगों ने अपनी जिंदगी में कभी न कभी अपने मवेशियों को चारागाह में जरूर चराया ही होगा। हमारे लिए तो यह घर के तमाम बंधनों से मुक्त होकर खुले मैदान में खेलने का सुनहरा मौका भी हुआ करता था। तमाम तरह के वैसे खेल, जिसकी आज के समय में स्मृतियों से भी नाम तक मिटते जा रहे हैं, वो सब खेल हमने चारागाहों में ही तो खेलने सीखे थे। गाँव से कस्बों तक जाने के शार्टकट रास्तों की खोज भी उसी की देन थी। अपने मवेशियों के साथ ही नदी-तालाबों में तैरना भी हमने सीखा था। यहीं से हमने तमाम पौधे-पत्तियों के उपयोग और उनकी खूबियों के बारे में ज्ञान हासिल करना शुरु किया। वाकई में चरवाहा होना अपने आपमें एक कला है। यह कला है प्रकृति के साथ जुड़ने की, उसे करीब से जानने की। पशुओं से भी मनुष्य ने बहुत कुछ सीखा था। तभी तो दुनिया के ज्यादातर बड़े-बड़े दार्शनिक व महापुरुष भी पहले चरवाहे ही हुए थे। वह चाहे ईसा मसीह हों या फिर पैगंबर मोहम्मद।


उल्लेखनीय है कि पूर्व में चरवाहे अपने पशुओं को लेकर दूर-सुदूर जगहों पर जाते थे। इस क्रम में वे चरवाही के साथ-साथ कई दूसरे महत्वपूर्ण कार्य भी सम्पन्न करते थे। एक जगह से दूसरी जगह ज्ञान के आवागमन के साथ-साथ तमाम तरह के पेड़-पौधे और उनके बीजों के आदान-प्रदान का भी ये महत्वपूर्ण जरिया थे। वे एक तरह के औषधि विक्रेता भी हुआ करते थे। उन्हें मौसम की गहरी समझ से लेकर नदियों, मैदानों, पहाड़ों, रेगिस्तानों और पठारों की भी काफी समझ हुआ करती थी। सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी वे अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।
चरवाहे जानवरों की भाषा से लेकर विभिन्न भाषा- शैलियों और बोलियों में पारंगत होते थे। मौसम के बदलते मिजाज के मुताबिक वह पशुओं की जरूरतों की पूर्ति के लिए एक जगह से दूसरी जगह अपने मवेशियों के साथ जाया करते थे। वहीं उनकी दुनिया सज जाती थी।
चरवाहों की अपनी अलग-अलग टोलियाँ होती थी। जिसमें कुछ बकरियाँ व भेंड़ चराने वाले होते तो कुछ ऊँट, गाय तथा भैंस चराने वाले भी होते थे। पूर्व में वह लगभग देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रमण करते हुए कहीं भी देखे जा सकते थे। कृषि के विकास में उनका बड़ा योगदान रहा है। बदलते वक्त के साथ इसमें भी काफी बदलाव आया। विकास की परिभाषा बदली और उसका पैमाना भी बदल गया। बावजूद इसके आज भी कुछ लोग यह काम करते हुए दिखाई दे सकते हैं, भले ही उनकी संख्या अब काफी कम रह गई है।

एक समय में न तो मवेशियों की कमी थी और न ही चारागाहों की और न ही उनके लिए कोई क्षेत्र विशेष की ही सीमाएँ हुआ करती थी, वह अपने पशुओं को लेकर कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र थे। घर-परिवार से दूर माल-मवेशी लेकर वे महीनों गुजार देते। चांद के नीचे चूल्हा जलाते और घास के बिस्तर पर रात गुजारते अपने उन्हीं मवेशियों के साथ।


लेकिन औपनिवेशिक काल में उनके लिए मुश्किलें बढ़नी शुरू हो गई। उसका एक कारण यह भी था कि उस वक्त तक अंग्रेजों ने अपनी पकड़ देश के लगभग सभी भागों में बना ली थी। और उन्हें यह घूमंतु लोग कभी समझ नहीं आए। उसका एक कारण यह भी रहा है कि वह उनकी परिधि से बाहर थे। क्योंकि उनका कोई स्थायी घर न होने की वजह से उनकी पहचान करना मुश्किल हो जाता था। इसलिए अंग्रेजों के द्वारा 1871 में क्रिमिनल ट्राईब्स एक्ट पारित किया गया। इस कानून के तहत तमाम ऐसे लोगों, जिनका पेशा घूम-घूम कर अपना व्यवसाय करना था, जिसमें दस्तकार, व्यवसायी और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को अपराधी की श्रेणी में गिना गया। उन्हें जन्मजात अपराधी तक कहा गया। इस दौर में अंग्रेजों ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए हर मुमकिन रास्ता अपनाया था। उन्होंने जल, जंगल, जमीन, नदियों के पानी से लेकर नमक तक पर, चरवाहों के चारागाहों और जानवरों पर भी टैक्स लगा दिए। यहाँ तक की 1850 से 1880 के बीच टैक्स वसूली का काम बाक़ायदा ठेकेदारों को बोली लगाकर दिया जाने लगा था। उसके बाद से लगातार उनकी मुश्किलें बढ़ती ही चली गई। कई सारे नए कानून बने, जिनमें मुख्य रूप से परती भूमि नियमावली आई। इस कानून के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत खाली ज़मीनों पर से भी टैक्स वसूलना चाहती थी। 
वन अधिनियम ने तो न केवल चरवाहे को बल्कि देश के तमाम आदिवासी गाँवों तक को नष्ट करने का रास्ता साफ कर दिया।
अपराधी जनजाति अधिनियम ने सभी घुमंतू समुदायों को अपराधी घोषित कर दिया था। जिसका नतीजा यह हुआ कि जब भी अंग्रेजी हुकूमत के कारिंदों का मन करता किसी को भी जेल में ठूँस देते और उन पर बर्बर अत्याचार किए जाते।
चराई टैक्स और सीमाओं की पाबंदी ने चरवाहों के समुदाय को लगभग ख़त्म कर दिया। टैक्स इतने अधिक लगाए जाने लगे जो वह देने में असमर्थ हो गए।

छत्तीसगढ़ के गुदगुदा ग्राम से
खैर यह तो अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हुआ। मुल्क की आजादी के बाद भी इन चरवाहों के लिए कोई ठोस साकारात्मक कदम नहीं उठाया गया। सच पूछिए तो इन चरवाहों की किसी को सुधि लेने की फुर्सत ही नहीं रही। गांवों में जो भी बचे-खुचे सार्वजनिक चारागाह थे, उनपर दबंगों-माफियाओं ने धीरे-धीरे कब्जा जमा लिया। आज बिन चारागाह के चरवाहे जब-तब छिट-फुट दिख जाते हैं। इस बीच पशुओं की देशी नस्लें, जिनमें हर मौसम से मुकाबला करने का अदम्य साहस हुआ करता था, तेजी से नष्ट होने के कगार पर हैं। अब पशु गरीबों के तारणहार होने के बजाय फार्म हाउस वाले धन्ना सेठों की तिजोरी भरने का जरिया मात्र बन कर रह गए हैं। इन्हें न तो पशुओं से कोई ममत्व है और न ही विशेष लगाव ही। पशु इनके लिए मुद्रा कमाने का जरिया मात्र हैं। इसलिए पशुओं को खतरनाक इंजेक्शन देकर ज्यादा दूध निकालने से भी इन्हें कोई परहेज नहीं है। पर चरवाहों के लिए पशु उनका एक तरह का संगी-साथी और परिवार का सदस्य भी हुआ करता था। पशु के हर सुख-दुख में वे समान भागीदार थे।

सारी तस्वीरें छत्तीसगढ़ के गुदगुदा ग्राम से... 

©Naresh Gautam   Dr. Mukesh Kumar

4 comments: